मन रे माधब सौं करि प्रीति -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग परज



            


मन रे, माधब सौं करि प्रीति।
काम-क्रोध-मद-लोभ तू, छाँड़ि सबै बिपरीति।
भौंरा भोगी बन भ्रमे, (रे) मोद न मानै ताप।
सब कुसुमनि मिलि रस करै, (पै) कमल बँधावै आप।
सुनि परमिति पिय प्रेम की, (रे) चातक चितवन पारि।
धन-आसा सब दुख सहै, (पै) अनत न जाँचै बारि।
देखौ करनी कमल की, (रे) कीन्‍हौं रवि सौं हेत।
प्रान तज्‍यौ, प्रेम न तज्‍यौ, (रे) सूख्‍यौ सलिल समेत।
दीपक पीर न जानई, (रे) पावक परत पतंग।
तनु तौ तिहिं ज्‍वाला जरयौ, (पै) चित न भयौ रस-भंग।
मीन बियोग न सहि सकै, (रै) नीर न पूछै बात।
देखि जु तू ताकी गतिहिं, (रे) रति न घटै तन जात।
परनि परेबा प्रेम की, (रे) चित लै चढ़त अकास।
तहँ चढ़ि तीय जो देखई, (रे) भू पर परत निसास।
सुमिरि सनेह कुरंग कौ (रे) स्रवननि राच्‍यौ राग।
धरि न सकत पग पछमनौ, (रे) सर सनमुख उर लाग।
देखि जरनि, जड़, नारि, की, (रे) जरति प्रेम के संग।
चिता न चित फीकौ भयौ, (रे) रची जु पिय कै रंग।
लोक-बेद बरजत सबै, (रे) देखत नैननि त्रास।
चोर न चित चोरी तजै, (रे) सरबस सहै बिनास।
सब रस कौ रस प्रेम है, (रे्) बिषयी खेलै सार।
तन-मन-धन-जोबन खसै, (रे) तऊ न मानै हार।
तैं जो रतन पयौ भलौ, (रे) जान्यौ साधि न साज।
प्रेम-कथा अनुदिन सुनै, (रे) तऊ न उपजै लाज।
सदा सँधाती अपनौ, (रे) जिय कौ जीवन-प्रान।
सु तैं बिसारयौ सहज हीं, (रे) हरि, ईश्‍वर भगवान।
बेद, पुरान, सु‍मृति सबैं, (रे) सुर-नर सेबत जाहि।
महा मूढ़ अज्ञान मति, (रे) क्‍यौं न सँभारत ताहि।
खग-मृग-मीन-पतंग लौं, (रे) मैं सोधे सब ठौर।
जल-थल-जीव जिते तिते, (रे) कहौं कहाँ लगि और।
प्रभु पूरन पावन सखा, (रे) प्राननि हूँ कौ नाथ।
परम दयालु कृपालु है, (रे) जीवन जाकैं हाथ।
गर्भ-बास अति त्रास मैं, (रे) जहाँ न एकौ अंग।
सुनि सठ, तेरौ प्रानपति, (रे) तहँउ न छाँड़यौ संग।
दिन-राती पोषत रह्यौ, (रे) जैसैं चोली पान।
वा दुख तैं तोहि काढ़ि कै, (रे) लै दीनौ पय-पान।
जिन जड़ तैं चेतन कियौ, (रे) रचि गुन-तत्त्व-बिधान
चरन, चिकुर, कर नख, दए, (रे) नयन, नासिका कान।
असन, बसन बहु बिधि दए, (रे) औसर औसर आनि।
मातु-पिता-भैया मिले, (रे) नई रुचि नई पहिचानि।
सजन कुटुँब परिजन बढे, (रे) सुत-दारा-धन-धाम।
महामूढ़ बिषयी भयौ, (रे) चित आकष्‍यौं काम।
खान-पान-परिधान मैं (रे) जीवन गयौ सब बीति।
ज्‍यौं बिट पर-तिय-सँग बस्‍यौ, (रे) भोर भए भई भीति।
जैसैं सुखहीं तन बढ़यौ, (रे) तैसैं तनहिं अनंग।
धूम बढ्यौ, लोचन खस्‍यौ, (रे) सखा न सूझ्‍यौ संग।
जम जान्‍यौ, सब जग सुन्‍यौ, (रे) बाढ़यौ अजस अपार।
बीच न काहू तब कियौ, (जब) दूतनि दीन्‍हीं मार।
कहा जानै कैवाँ, मुवौ, (रे) ऐसैं कुमति, कुमीच।
हरि सौं हेत बिसारि कै, (रे) सुख चाहत है नीच !
जौ पै जिय लज्‍जा नहीं, (रे) कहा कहौं सौ बार ?
एकहु आँक न हरि भजे, (रे) रे सठ, सूर गँवार।।325।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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