मन में चाह जगी थी प्रियतम -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

अभिलाषा

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राग जंगला - ताल कहरवा


 
मन में चाह जगी थी प्रियतम! हो प्रभु का महिमा-विस्तार।
सब के दुःख-दाह मिट जायें, पा प्रभु के पद-कमल उदार॥
पता नहीं, क्यों जगी चाह यह, क्यों बदला जीवन का ढंग।
क्यों तुमने नित नये दिखाये फिर निज विविध रूप-रस-रंग॥
चमकी परम दिव्य बिजली-सी, बही सरस शुचि साधन-धार।
उमड़ी, बढ़ी चली हो टेढ़ी, रंग बदलती बारम्बार॥
क्यों तुमने छीना सब, क्यों फिर दिया अनोखा प्यार-दुलार।
क्यों विरोधिनी दी तुमने प्रख्याति निम्रगामिनि, निस्सार॥
यह तो निश्चित है, तुम जो करते, उससे होता कल्याण।
पर क्यों बार-बार करते परिवर्तन, लीलामय! भगवान?
बचे-खुचे जीवन को कर लो अब, बस अपने में ही लीन।
निर्मल, शान्त बना लो, रखो कभी न रञ्चक हीन-मलीन॥
मेरी सारी चाह, चाह की वस्तु, सभी के तुम आधार।
मुझको भी निज वस्तु जानकर, कर लो प्रभु सत्त्वर स्वीकार॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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