मन, तोसौं कोटिक बार कही।
समुझि न चरन गहे गोविंद के, उर अध-सूल सही।
सुमिरन, ध्यान, कथा हरिजू की यह एकौ न रही।
लोभी, लंपट, बिषयिनि सौं हित, यौं तेरी निबही।
छाँड़ि कनक-मनि रतन अमोलक, काँच की किरच गही।
ऐसौ तू है चतुर विवेकी, पय तजि पियत मही।
ब्रह्मादिक, रुद्रादिक, रवि-ससि, देखे सुर सबही।
सूरदास भगवंत भजन बिनु, सुख तिहुँ लोक नहीं।।324।।