मनोहर है नैननि की भाँति।
मानहुँ दूरि करत बल अपनै, सरदकमल की काँति।।
इंदीवर राजीव कुसेसय, जीते सब गुन जाति।
अति आनंद सुप्रौढ़ा तातैं, बिकसत दिन अरु राति।।
खजरीट मृग मीन बिचारति, उपमा कौ अकुलाति।
चंचल चारु चपल, अवलोकनि, चितहिं न एक समाति।।
जब कहुँ परत निमेषहु अंतर, जुग समान पल जाति।
‘सूरदास’ वह रसिक राधिका, निमि पर अति अनखाति।।1811।।