मनहीं मन रीझति महतारी -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सारंग


मनहीं मन रीझति महतारी।
कहा भई जौ बाढ़ि तनक गई, अबहीं तौ मेरी है बारी।।
झूठैं हीं यह बात उड़ी है, राधा-कान्ह कहत नर-नारी।
रिस की बातसुता के मुख की, सुनति हँसति मनहीं मन भारी।।
अब लौं नहीं कछू इहिं जान्यौ, खेलत देखि लगावैं गारी।
सूरदास जननी उर लावति, मुख चूमति पोंछति रिम टारी।।1710।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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