मनहीं मन रीझति महतारी।
कहा भई जौ बाढ़ि तनक गई, अबहीं तौ मेरी है बारी।।
झूठैं हीं यह बात उड़ी है, राधा-कान्ह कहत नर-नारी।
रिस की बातसुता के मुख की, सुनति हँसति मनहीं मन भारी।।
अब लौं नहीं कछू इहिं जान्यौ, खेलत देखि लगावैं गारी।
सूरदास जननी उर लावति, मुख चूमति पोंछति रिम टारी।।1710।।