मधुप तुम देखियत हौ अति कारे।
कालिंदी तट पार बसत हौ, सुनियत स्याम सखा रे।।
मधुकर, चिकुर, भृंअंग, कोकिला, अवधि नहीं दिन टारे।
वै अपने सुख ही के राते, तजियत यह अनुहारे।।
कपटी कुटिल निठुर, निरमोही, दुख दै दूरि सिधारे।
बारक बहुरि कबहुँ आवहुगे, नैननि साध निवारे।।
उनकी सुनै सो आप विगोवै, चित चोरत बटपारे।
'सूरदास' प्रभु क्यौ मन मानै, सेवक करत निनारे।।3758।।