मधुकर हम न होहिं वै बेलि।
जिन भजि तजि तुम फिरत और रँग, करत कुसुमरस केलि।।
बारे तै बर बारि बढ़ी है, अरु पोषी पिय पानि।
बिन पिय परस प्रात उठि फूलत, होति सदा हित हानि।।
ये बेली बिरही वृंदावन, उरझी स्याम तमाल।
प्रेम-पुहुप-रस बास हमारे, बिलसत मधुप गोपाल।।
जोग समीर धीर नहि डोलति, रूप डार दृढ़ लागी।
‘सूर’ पराग न तजतिं हिए तै, श्री गुपाल अनुरागी।। 3508।।