मधुकर सुनि मोहन कौ नातौ।
राखि समीप सदा सुख दीन्हौ, अब हमसौ कियौ हातौ।
ज्यौ चातक व्रत नेम धारि कै, जल बरषत रहै प्यासौ।
जाइ नहीं सर दूजे क्यौ हूँ, स्वाति बूँद की आसौ।।
ज्यौ पतंग तन-मन-धन अरषै, प्रेम सहित मरि जानै।
नैकु न प्रीत धरै चित अंतर, दीपक दया न आनै।।
जासौं हित ताकी गति ऐसी, यह अँदेस मन माहीं।
'सूरदास' हरि प्रान हमारे, हरि की हम कछु नाही।।3935।।