मधुकर समुझि कहौ किन बात।
पर मद पिये मत्त न हूजियत, काहे कौ इतरात।।
बीच जो परै सत्य सो भाषै, बोलै सत्य स्वरूप।
मुख देखे कौ न्याउ न कीजै, कहा रंक कह भूप।।
कछुवै कहत कछू मुख निकसत, पर निंदक व्यभिचारी।
ब्रज वनितनि कौ जोग सिखावत, कीरति आनि पसारी।।
हम जानै जु भँवर रस भोगी, जोग जुगुति कहँ पाई।
परम गुरु सिर मूँड़ि बापुरे, कर मुख छार लगाई।।
यहै अनीति विधाता कीन्ही, तौ वै पूछत नाही।
जौ कोउ पर हित कूप खनावै, परै सु कूपहि माही।।
तब अक्रूर अबै हौ उधौ, दुहुँ मिलि छाती जारी।
‘सुर' सोइ प्रभु अंतरजामी, कासौ कहैं पुकारी।।3687।।