मधुकर लागत हौ सुठि भारे।
अलक कलीन कोक रस पीवत, उड़पति जैसे तारे।।
जो तुम पथिक दूर के बासी, गुंजत गुंजत हारे।
बारह मध्य अलक उर अंतर, आदि अंत लौ कारे।।
मधि मूरति सूरति जिय भावत, बिरचे लै दुख भारे।
‘सूरदास’ प्रभु बिरह कपट हथ, अंत ह्वै गए न्यारे।। 179 ।।