मधुकर यह जानी तुम साँची।
पूरन ब्रह्म तुम्हारौ ठाकुर, आगै माया नाची।।
यह इहिं गाउँ न समुझत कोऊ, कैसौ निरगुन होत।
गोकुल ओट परे नँदनंदन, वहै तुम्हारौ पोत।।
को जसुमति ऊखल सौ बाँध्यौ, को दधि माखन चोरे।
किन ये दोऊ रुख हमारे, जमला अर्जुन तोरे।।
को लै बसन चढ्यौ तरु साखा, मुरली मन आकरषे।
को रस रास रच्यौ वृंदावन, हरषि सुमन सुर बरषे।।
जौ डाकौ तौ कत बिनु बूड़े, काहै जीभि पिरावत।
तब जु ‘सूर’ प्रभु गए क्रूर लै, अब क्यौ नैन सिरावत।।3630।।