मधुकर मीत नहीं संसार -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग केदारौ


मधुकर मीत नहीं संसार।
जहँ जाकौ सुख लौस बढ़त है, तहँ ताकौ अनुसार।।
तौ लौ लिपटि रहत अंबुज पर, हिमकर जनित तुषार।
नैसुक प्रभा प्रगट दिनकर की, तच्छन तजत बिहार।।
मृदुल मल्लिका ऐसी सुनि अलि, कुसुम करत जिहिं भार।
तिहिं मर्दन करि गंध लेत पुनि, सदन रचत टकसार।।
नाना स्वाद करत नित भोजन, एकहि दिवस अबार।
तच्छन हस्त चरन गति सिथिलित, पंथ न पैड़ पसार।।
विषयी भजत त्रिया अँग जबही, तब त्यागत उर हार।
भोर भऐ निकसत अंतर करि, गिरि सरिता प्राकार।।
कहि धौ कौन हेत हरि गोकुल, प्रगट कियौ अवतार।
किनकै हेत लई कर मुरली, अंग रूप सत मार।।
‘सूर’ स्याम ऐसी न बूझियै, जहँ नित अटल बिहार।
विरद घटत किहि कौ तुम देख्यौ, यह कछु करौ विचार।।3982।।

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