मधुकर बात तिहारी जानी।
पालागौ मुख मौन गहौ अब, कटुक लगति है बानी।।
जौ पै स्याम रहत घट, तौ कत विरह बिथा न परानी।
झूठी बातनि क्यौ मन मानत, चल मति अलप गियानी।।
जोग जुगुति की नीति अगम, हम ब्रजवासिनि कह जानै।
सिखवहु जाइ जहाँ नटनागर, रहत प्रेम लपटाने।।
दासी घेरि रहे हरि तुम ह्याँ, गढ़ि गढ़ि कहत बनाई।
निपट निलज्ज अजहूँ न चलत उठि, कहत ‘सूर’ समुझाई।।3940।।