मधुकर निपट हीन मन उचटे।
सूँघत फिरत सकल कुसुमनि कौ, कहूँ न रीझि कटे।।
जे कवि कहत कंज रति मानत, ते सब भ्रमहिं रटे।
अलक, तिलक, दृग, भौह पलक की उपमा तै न हटे।।
सर सूखे तूखे पराग रस, कमलनि पर प्रगटे।
झूठै हूँ नहि उझकत झझकत, तव वै छेद जटे।।
जुगति जोग सब्दहिं कि बोलत, बहुतै भरम भटे।
‘सूर’ कहा कहियत ताकी गति, चुरई भले पटे।। 161 ।।