मधुकर दीन्ही प्रीति दिनाई।
बातनि सुहृद कर्म कपटी के, चलनि चार के भाई।।
प्रेम बीच बधवार सुधा रस, अधर, माधुरी प्याई।
सो अब जाइ खग्यौ उर अंतर, ओषधि कछु न बसाई।।
गरल दान देते बरु नीकौ, सावधान ह्वै खाई।
कै मारै कै काज सरै पै, दुःख न देख्यौ जाई।।
कहि मारै सत ‘सूर’ कहावै, मित्र द्रोह न भलाई।
'सूरदास' ऐसे अलि जग मै, तिनको गति नहिं गाई।।3853।।