मधुकर जौ तू हितू हमारी।
तौ प्यावहि हरिबदन सुधारस, छाँड़ि जोगजल खारौ।।
सुनि सठ नीति सुरभि पयदायक, क्यौ जु लेति हल भारौ।
जे भयभीत होहिं सक देखै, क्यौऽब छुवहिं अहि कारौ।।
निज कृत समुझि बेनु दसनन हति, धाम सजत नहिं हारौ।
ता बल अछत निसा पंकज भ्रमि, दल कपाट नहिं टारौ।।
रे अलि चपल मोद रस लंपट, कतहिं बकत बेकाज।
‘सूर’ स्याम छवि क्यौ बिसरति है, नखसिख अंग बिराज।।3742।।