मधुकर कह कारे की न्याति।
ज्यौं जल मीन कमल मधुपनि की, छिन नहि प्रीति खटाति।।
कोकिल कपट कुटिल बायस छलि, फिरि नहि उहिं बन जाति।
तैसेहि रास केलि रस अँचयौ, बैठि एक ही पाँति।।
सुत हित जोग जग्य ब्रत कीजत, बहु विधि नीकी भाँति।
देखौ अहि मन मोह मया तजि, ज्यौ जननी जनि खाति।।
तिनकौ क्यौ मन विस्मय कीजै, औगुन लौ सुख साँति।
तैसेइ ‘सूर’ सुने जदुनंदन, बजी एक ही ताँति।।3753।।