मधुकर कह्यौ सँदेस सिधारौ।
बिनु उपदेस सहजही जोगी, सुधरि रह्यौ ब्रज सारौ।।
जाकौ ध्यान धरत गौरीपति, जोग जुक्ति करि हारौ।
सो हरि बसत सदा उर अंतर, नैकु टरत नहिं टारौ।।
यह उपदेस आपनौ ऊधौ, राखौ ढाँपि सँवारौ।
‘सूर’ स्याम जानत है जी की, जो निज हितू हमारौ।।3797।।