मधुकर कहि कैसै मन मानै -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग मलार


 
मधुकर कहि कैसै मन मानै।
जिनकौ इक अनन्य व्रत सूझै, क्यौ दूजौ उर आनै।।
यह तौ जोग स्वाद अलि ऐसौ, पाइ सुधा खरि सानै।
कैसै धौ यह बात पतिव्रता, सुनै सठ पुरुष बिरानै।।
जैसै मृगिनी ताकि बधिक दृग, कर कोदंड गहि तानै।
हिंसा करि पोषत तन मन सुख, उर अपराध न आनै।।
बड़े बिचित्र कुबिजा रँग रँगे हम निर्गुन लिखि ठानै।
‘सूर’ स्याम सगुन रतिमानी, मधुप प्रान जनि छानै।।3715।।

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