मधुकर अब यह आइ रही -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग केदारौ


 
मधुकर अब यह आइ रही।
वारिध जोग अपार अगम कौ, निगम न थाह लही।।
बुधि विवेक बोहित चढ़ि स्रम करि, तौ सिव चेत परी।
जीवन अति सुकुमार अधीरज जुगुति न जात तरी।।
अब निरास कछु चलै न आवै लहरनि उठै समाइ।
भ्रामक भँवर भेद दिखियत है, मनसा तहाँ न जाइ।।
गुन अवलंब कहै नहिं कोऊ, निरगुन तुमहुँ सुनावहु।
प्रेम प्रतीति प्रीति जिनही मन, कित आधार छंड़ावहु।।
साधन किए लाल मन मानिक, हीरा रतन अमोल।
प्रेम बृच्छ पर चारि सदा फर, निरभय अमित अडोल।।
सुमिरन ध्यान आस छाया करि, मन मोहन प्रभु नागर।
दुस्तर तरहिं ‘सूर’ क्यौ अबला, चख जल सरिता सागर।।3610।।

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