गोपी पद रज महिमा 2 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिलावल


मथुरा-मंडल भरत-खंड, निज धाम हमारौ।
धरौं तहाँ मैं गोप-वेष, सो पंथ निहारौ।।
तब तुम ह्वै कै गोपिका, कन्हि मो सौं नेह।
करौं केलि तुम सौं सदा, सत्य बचन मम एह।।
स्रुति सुनि कै यह बचन, भाग्य अपनौ बहु मान्यौ।
चितवन लगीं तिहि समय, द्यौस सो जात न जान्यौ।।
भार भयौ जब पृथी पर, तब हरि लियौ अवतार।
बेद ॠचा ह्वै गोपिका, हरि संग कियौ बिहार।।
जो कोउ भरता-भाव हृदय धरि हरि-पद ध्यावै।
नारि पुरुष कोउ होइ, स्रुति-ॠचा-गति सो पावै।।
तिनकी पदरज कोउ जो, बृंदाबन भू माँह।
परसै सोउ गोपिका-गति पावै संसय नाहिं।।
भृगु, तातैं मैं चरन-रेनु गोपिनि की चाहत।
स्तुति-मति बारंबार, हृदय अपनैं अवगाहत।।
महिमा पद-रज-गोपिका, बिधि जब दई सुनाइ।
तब भृगु आदिक रिषि सकल, रहे हरि पद चितलाइ।।
सर्ब सास्त्र कौ सार, सार-इतिहास-सर्ब जो।
सर्ब पुराननि सार, सार जो सर्ब स्रुतिनि कौ।।
बंदन-रज-बिधि सबै बिधि, दियौ रिषिनि समुझाइ।
ब्यास जु कह्यौ पुरान मैं, सूर कह्यौ सो गाइ।।1175।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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