सुरनि हित हरि कछप-रूप धान्यौ2 -सूरदास

सूरसागर

अष्टम स्कन्ध

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राग मारू



मंदराचल समुद्र माहिं बूड़न लग्यौ, तब सबनि बहुरि अस्तुति सुनाई।
कूर्म कौ रूप धरि, धरयौ गिरि पीठि पर , सुर असुर सबनि कैं मन बधाई।
पूँछ कौं तजि असुर दौरिकै मुख गह्मो, सुरनि तब पूँछ की ओर दीन्ही।
भयौ हालाहल प्रगट प्रथमहीं मथत जब रुद्र कै कंठ दियौ ताहि धारी।
चंद्रमा बहुरि जब मथत आयो निकसि, साउ करी कृपा दींन्हौ मुरारी।
कामनाधेनु पुनि सप्तरिषि को दई , लई उन बहुत मन हर्ष कीन्हें।
अप्सरा, पारिजातक, धनुष, अस्व, गज, स्वेत ये पाँच सुरपतिहिं दीन्हें।
संख, कौस्तुभमनी, लई, पुनि आप हरि, लच्छमी बहुरि तहँ दिखाई।
परम सुंदर , मनौ तड़ित हे दूसरी, कमल की माल कर लियै आई।
सकल भूषन भनिनि के बने सकल अंग , बसन बर अरुन सुंदर सुहायौ।
देखि सुर-असुर सब दौरि लागे गहन, कह्मौ मै वर वरौ आप -भायौ।
जो चहै मोहिं मैं ताहि नाहीं चहौं, असुर को राज थिर नाहिं देखो।
तपसियनि देखि कह्यौ , क्रोध इनमे बहुत, ज्ञानियनि मै न आचार पेखौं।
सुरनि को देखि कह्मो निडर ये, लोक तिहूँ माहिं कोउ चित न आयौ।
बहुरि भगवान कौं निरखि सुंदर परम , कह्यौ, इन माहिं गुन हैं सुभाए।
पै न इच्छा हन्हैं हे कछू बस्तु की , अरु न ये देखि कै मोहि लुभाए।
कबहुँ कियैं भक्ति हु के न ये रीझहीं , कबहुँ कियै बैर के रीझि जाहीं।
करि कहयौ, मम हृदय माहिं तू रहि सदा, सुरनि मिलि देव-दुदुभि बजाई।
धन्य-धन्य कह्यौ पुनि लच्छमी सौ सबनि, सिद्ध -गंधर्व जय-ध्वनि सुनाई।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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