भावी काहू सौं न टरै।
कहँ वह राहु, कहाँ वै रवि ससि, आनि सँजोग परै।
मुनि बसिष्ठ पंडित अति ज्ञानी, रचि-रचि लगन धरै।
तात-मरन, सिय-हरन, राम बन-बपु धरि बिपति भरै।
रावन जीति कोटि तैंतीसौ, त्रिभुवन राज करै।
मृत्युहिं बाँधि कूप मैं राखै, भावी-बस सो मरै।
अरजुन के हरि हुते सारथी सौऊ बन निकरै।
द्रुपद-सुता कौ राजसभा दुस्सासन चीर हरै।
हरींचंद सो को जगदाता, सो घर नीच भरै।
जौ गृह छाँड़ि देस बहु धावै, तउ वह संग फिरै।
भावी कैं बस तीन लोक हैं, सुर नर देह धरै।
सूरदास प्रभु रची सु ह्वै है, को करि सोच मरै।।264।।
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