भलौ ब्रज भयौ धरनि तै स्वर्ग ।
तब इन पर गिरि, अब गिरि पर ये, प्रोति किधौ यह दुर्ग ।।
सुर बासुर छल बाल बारि गढ़, अत्र अवधि मिलि खूटी ।
प्रिय पति बिरह मदन गढ़ घेरयौ, एकौ अलँग न टूटी ।।
नैन तड़ाग, स्रवन मूरति मठ, जत्र सकत बार बानी ।
राम केलि घन पौरि कोट मनु, देखि अमर रजधानी ।।
गोरभन गोला गजैन, घन घमिं दुदुभिनि रोकी ।
कटक रोम कँगूरनि प्रति मनौ आनी अपनी चौकी ।।
चढ़त त्रिभगी सजि साजि मत, धँसत नहीं पल आँखी ।
देखहु ‘सूर’ सनेह स्याम कौ, गगन मँडल हम राखी ।। 3221 ।।