- महाभारत द्रोण पर्व मेंं अभिमन्युवध पर्व के अंतर्गत 59वें अध्याय मेंं 'नारद ने सृंजय से भगवान श्रीराम के चरित्र' का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है-[1]
विषय सूची
भगवान श्रीराम के चरित्र का वर्णन
नारद जी कहते हैं– सृंजय! दशरथनन्दन भगवान श्रीराम भी यहाँ से परमधाम को चले गये थे, यह मेरे सुनने में आया है। उनके राज्य में सारी प्रजा निरन्तर आनन्दमग्न रहती थी। जैसे पिता अपने औरस पुत्रों का पालन करता है, उसी प्रकार वे समस्त प्रजा का स्नेहपूर्वक संरक्षण करते थे। वे अत्यन्त तेजस्वी थे और उनमें असंख्य गुण विद्यमान थे। अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले लक्ष्मण के बड़े भाई श्रीराम ने पिता की आज्ञा से चौदह वर्षों तक अपनी पत्नी सीता[2] के साथ वन में निवास किया था। नरश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्र जी ने जनस्थान में तपस्वी मुनियों की रक्षा के लिये चौदह हजार राक्षसों का वध किया था। वहीं रहते समय लक्ष्मण सहित श्रीराम को मोह में डालकर रावण नामक राक्षस ने उनकी पत्नी विदेहनन्दिनी सीता को हर लिया। अपनी मनोरमा पत्नी के राक्षस द्वारा हर लिये जाने का समाचार जटायु के मुख से सुनकर श्रीरामचन्द्र जी आतुर एवं शोकसंतप्त हो वानरराज सुग्रीव के पास गये। सुग्रीव से मिलकर श्रीराम ने[3] महाबली वानरों को साथ ले महासागर में पुल बांधकर समुद्र को पार किया। वहाँ पुलस्त्यवंशी राक्षसों को उनके सुहृदों और बन्धु-बान्धवों सहित मारकर श्रीराम ने अपने प्रधान अपराधी अत्यन्त घोर मायावी लोककंटक पुलस्त्यनन्दन रावण को, जो दूसरों के द्वारा कभी जीता नहीं गया था, कुपित होकर समरभूमि में मार डाला। ठीक उसी तरह, जैसे पूर्वकाल में भगवान शंकर ने अन्धकासुर को मारा था। जो देवताओं और असुरों के लिये भी अवध्य था, देवताओं और ब्राह्मणों के लिये कण्टकरूप उस पुलस्त्यवंशी रावण का रणक्षेत्र में महाबाहु श्रीरामचन्द्र जी ने उसके दलबल सहित संहार कर डाला। इस प्रकार वहाँ युद्धस्थल में अपने वैरी रावण का वध करके वे धर्मपत्नी सीता से मिले। तत्पश्चात धर्मात्मा विभीषण को उन्होंने लंका का राजा बना दिया।
तदनन्तर वीर श्रीरामचन्द्र जी अपनी पत्नी तथा वानरसेना के साथ शोभा वाली पुष्पक विमान के द्वारा अयोध्या में आये। राजन! अयोध्या में प्रवेश करके महायशस्वी श्रीराम वहाँ माताओं, मित्रों, मंत्रियों, ऋत्विजों तथा पुरोहितों की सेवा में सदैव संलग्न रहने लगे। फिर मंत्रियों ने उनका राज्याभिषेक कर दिया। इसके बाद वानरराज सुग्रीव, हनुमान और अंगद को विदा करके अपने वीर भ्राता भरत, शत्रुघ्न और लक्ष्मण का आदर करते हुए विदेहनन्दिनी सीता द्वारा परम प्रेमपूर्वक सम्मानित हो श्रीरामचन्द्र जी ने चारों समुद्रों तक की सारी पृथ्वी का शासन किया और समस्त प्रजाओं पर अनुग्रह करके वे देवताओं द्वारा सम्मानित हुए। देवर्षिगणों से सेवित श्रीराम ने विधिपूर्वक राज्य पाकर अपनी कीर्ति से सम्पूर्ण जगत को व्याप्त कर दिया और समस्त प्राणियों पर अनुग्रह करते हुए वे धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करने लगे। भगवान राम ने निर्बाधरूप से राजसूय और अश्वमेघ-यज्ञ का अनुष्ठान किया और देवराज इन्द्र को हविष्य से तृप्त करके उन्हें अत्यन्त आनन्द प्रदान किया। राजा राम ने नाना प्रकार के दूसरे-दूसरे यज्ञ भी किये थे, जो अनेक गुणों से सम्पन्न थे। श्रीरामचन्द्र जी ने भूख और प्यास को जीत लिया था। सम्पूर्ण देहधारियों के रोगों को नष्ट कर दिया था। वे उत्तम गुणों से सम्पन्न हो सदैव अपने तेज से प्रकाशित होते थे।[1]
राम के राज्यशासन में प्रजा का सुखी होना
दशरथनन्दन श्रीराम[4] सम्पूर्ण प्राणियों से बढ़कर शोभा पाते थे। श्रीराम के राज्यशासन करते समय ऋषि, देवता और मनुष्य सभी एक साथ इस पृथ्वी पर निवास करते थे। उस समय उनके राज्य शासनकाल में प्राणियों के प्राण, अपान और समान आदि प्राणवायु का क्षय नहीं होता था; इस नियम में कोई हेर-फेर नहीं था। सब[5] सब ओर अग्निदेव प्रज्वलित होते रहते थे। उन दिनों किसी प्रकार का अनर्थ नहीं होता था। सारी प्रजा दीर्घायु होती थी। किसी युवक की मृत्यु नहीं हुआ करती थी। चारों वेदों के स्वाध्याय से प्रसन्न हुए देवता तथा पितृगण नाना प्रकार के हव्य और कव्य प्राप्त करते थे। सब ओर इष्ट[6] और पूर्त[7] का अनुष्ठान होता रहता था। श्रीरामचन्द्र जी के राज्य में किसी भी देश में डाँस और मच्छरों का भय नहीं था। साँप और बिच्छू नष्ट हो गये थे। जल में पड़ने पर भी किसी प्राणी की मृत्यु नहीं होती थी। चिता की अग्नि ने किसी भी मनुष्य को असमय में नहीं जलाया था[8] उन दिनों लोग अधर्म में रुचि रखने वाले, लोभी और मूर्ख नहीं होते थे। उस समय सभी वर्ण के लोग अपने लिये शास्त्रविहित यज्ञ-यागादि कर्मों का अनुष्ठान करते थे। जनस्थान में राक्षसों ने जो पितरों और देवताओं की पूजा-अर्चा नष्ट कर दी थी, उसे भगवान श्रीराम ने राक्षसों को मारकर पुन: प्रचलित किया और पितरों को श्राद्ध का तथा देवताओं को यज्ञ का भाग दिया। श्रीराम के राज्यकाल में एक-एक मनुष्य के हजार-हजार पुत्र होते थे और उनकी आयु भी एक-एक सहस्त्र वर्षों की होती थी। बड़ों को अपने छोटों का श्राद्ध नहीं करना पड़ता था। श्रीराम के राज्य में कहीं भी चोर, नाना प्रकार के रोग और भाँति-भाँति के उपद्रव नहीं थे। दुर्भिक्ष, व्याधि और अनावृष्टि का भय भी कहीं नहीं था। सारा जगत अत्यन्त सुख से सम्पन्न और प्रसन्न ही दिखायी देता था। इस प्रकार श्रीराम के राज्य करते समय सब लोग बहुत सुखी थे।[9]
राम के सौंदर्य का वर्णन
भगवान श्रीराम की श्यामसुन्दर छबि, तरुण अवस्था और कुछ-कुछ अरुणाई लिये बड़ी-बड़ी आँखें थीं। उनकी चाल मतवाले हाथी-जैसी थी, भुजाएँ सुन्दर और घुटनों तक लंबी थीं। कंधे सिंह के समान थे। उनमें महान बल था। उनकी कान्ति समस्त प्राणियों के मन को मोह लेने वाली थी। उन्होंने ग्यारह हजार वर्षों तक राज्य किया था। श्रीरामचन्द्र जी के राज्य शासनकाल में समस्त प्रजाओं में ‘राम, राम, राम’ यही चर्चा होती थी। श्रीराम के कारण सारा जगत ही राममय हो रहा था। फिर समय अनुसार अपने और भाइयों के अंशभूत दो-दो पुत्रों द्वारा आठ प्रकार के राजवंश की स्थापना करके उन्होंने चारों वर्णों की प्रजा को अपने धाम में भेजकर स्वयं ही सदेह परम धाम को गमन किया।
श्वैत्य सृंजय! ये श्रीरामचन्द्र जी धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य चारों बातों में तुमसे बहुत बढ़े-चढ़े थे और तुम्हारे पुत्र से भी अधिक पुण्यात्मा थे। जब वे भी यहाँ नहीं रह सके, तब दूसरों की तो बात ही क्या है? अत: तुम यज्ञ एवं दान-दक्षिणा से रहित अपने पुत्र के लिये शोक न करो। नारद जी ने राजा सृंजय से यही बात कही।[9]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 59 श्लोक 1-11
- ↑ और भाई लक्ष्मण
- ↑ उनके साथ मित्रता की और
- ↑ अपने महान तेज के कारण
- ↑ यज्ञों अथवा अग्निहोत्र-ग्रहों में
- ↑ यज्ञयागादि
- ↑ वापी, कूप, तडाग और वृक्षारोपण आदि
- ↑ किसी की अकाल मृत्यु नहीं हुई थी।
- ↑ 9.0 9.1 महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 59 श्लोक 12-25
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| सात्यकि द्वारा अलम्बुष का और दु:शासन के घोड़ों का वध
| सात्यकि का अद्भुत पराक्रम
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| सात्यकि के आगमन से अर्जुन की चिन्ता
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| भूरिश्रवा का आमरण अनशन
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| भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के अपमानित होने का कारण
| वृष्णिवंशी वीरों की प्रशंसा
| अर्जुन का जयद्रथ पर आक्रमण तथा दुर्योधन और कर्ण का वार्तालाप
| अर्जुन का कौरव योद्धाओं के साथ युद्ध
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| अर्जुन का अद्भुत पराक्रम
| अर्जुन द्वारा सिन्धुराज जयद्रथ का वध
| अर्जुन के बाणों से कृपाचार्य का मूर्छित होना तथा अर्जुन का खेद
| कर्ण और सात्यकि का युद्ध एवं कर्ण की पराजय
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| कर्ण द्वारा कृपाचार्य का अपमान
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| भीमसेन और अर्जुन का आक्रमण तथा कौरव सेना का पलायन
| सात्यकि द्वारा सोमदत्त का वध
| द्रोणाचार्य और युधिष्ठिर का युद्ध
| श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को द्रोणाचार्य से दूर रहने का आदेश
| कौरवों और पांडवों की सेनाओं में प्रदीपों का प्रकाश
| कौरवों और पांडवों की सेनाओं का घमासान युद्ध
| दुर्योधन का द्रोणाचार्य की रक्षा हेतु सैनिकों को आदेश
| कृतवर्मा द्वारा युधिष्ठिर की पराजय
| सात्यकि द्वारा भूरि का वध
| घटोत्कच और अश्वत्थामा का घोर युद्ध
| भीम और दुर्योधन का युद्ध तथा दुर्योधन का पलायन
| कर्ण द्वारा सहदेव की पराजय
| शल्य द्वारा विराट के भाई शतानीक का वध और विराट की पराजय
| अर्जुन से पराजित होकर अलम्बुष का पलायन
| शतानीक के द्वारा चित्रसेन की पराजय
| वृषसेन के द्वारा द्रुपद की पराजय
| प्रतिबिन्ध्य एवं दु:शासन का युद्ध
| नकुल के द्वारा शकुनि की पराजय
| शिखण्डी और कृपाचार्य का घोर युद्ध
| धृष्टद्युम्न का द्रोणाचार्य से युद्ध
| धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुमसेन का वध
| सात्यकि और कर्ण का युद्ध
| कर्ण की दुर्योधन को सलाह
| शकुनि का पांडव सेना पर आक्रमण
| सात्यकि से दुर्योधन की पराजय
| अर्जुन से शकुनि और उलूक की पराजय
| धृष्टद्युम्न से कौरव सेना की पराजय
| दुर्योधन के उपालम्भ से द्रोणाचार्य और कर्ण का घोर युद्ध
| अर्जुन सहित भीमसेन का कौरवों पर आक्रमण
| कर्ण द्वारा धृष्टद्युम्न एवं पांचालों की पराजय
| कर्ण के पराक्रम से युधिष्ठिर की घबराहट
| श्रीकृष्ण और अर्जुन का घटोत्कच को कर्ण के साथ युद्ध हेतु भेजना
| घटोत्कच और जटासुरपुत्र अलम्बुष का घोर युद्ध
| घटोत्कच द्वारा जटासुरपुत्र अलम्बुष का वध
| घटोत्कच और उसके रथ आदि के स्वरूप का वर्णन
| कर्ण और घटोत्कच का घोर संग्राम
| अलायुध के स्वरूप और रथ आदि का वर्णन
| भीमसेन और अलायुध का घोर युद्ध
| घटोत्कच द्वारा अलायुध का वध और दुर्योधन का पश्चाताप
| कर्ण द्वारा इन्द्रप्रदत्त शक्ति से घटोत्कच का वध
| घटोत्कच वध से पांडवों का शोक तथा श्रीकृष्ण की प्रसन्नता
| श्रीकृष्ण का अर्जुन को जरासंध आदि के वध करने का कारण बताना
| कर्ण द्वारा अर्जुन पर शक्ति न छोड़ने के रहस्य का वर्णन
| धृतराष्ट्र का पश्चाताप और संजय का उत्तर
| युधिष्ठिर का शोक और श्रीकृष्ण तथा व्यास द्वारा उसका निवारण
द्रोणवध पर्व
| अर्जुन के कहने से उभयपक्ष के सैनिकों का सो जाना
| उभयपक्ष के सैनिकों का चन्द्रोदय के बाद पुन: युद्ध में लग जाना
| दुर्योधन का उपालम्भ और द्रोणाचार्य का व्यंग्यपूर्ण उत्तर
| पांडव वीरों का द्रोणाचार्य पर आक्रमण
| द्रुपद के पौत्रों तथा द्रुपद और विराट आदि का वध
| धृष्टद्युम्न की प्रतिज्ञा और दोनों दलों में घमासान युद्ध
| युद्धस्थल की भीषण अवस्था का वर्णन
| नकुल के द्वारा दुर्योधन की पराजय
| दु:शासन और सहदेव का घोर युद्ध
| कर्ण और भीमसेन का घोर युद्ध
| द्रोणाचार्य और अर्जुन का घोर युद्ध
| धृष्टद्युम्न का दु:शासन को हराकर द्रोणाचार्य पर आक्रमण
| दुर्योधन और सात्यकि का संवाद तथा युद्ध
| कर्ण और भीमसेन का संग्राम तथा अर्जुन का कौरवों पर आक्रमण
| द्रोणाचार्य का घोर कर्म
| ऋषियों का द्रोण को अस्त्र त्यागने का आदेश
| अश्वत्थामा की मृत्यु सुनकर द्रोण की जीवन से निराशा
| द्रोणाचार्य और धृष्टद्युम्न का घोर युद्ध
| सात्यकि की शूरवीरता और प्रशंसा
| उभयपक्ष के श्रेष्ठ महारथियों का परस्पर युद्ध
| धृष्टद्युम्न का द्रोणाचार्य पर आक्रमण और घोर युद्ध
| द्रोणाचार्य का अस्त्र त्यागकर योगधारणा द्वारा ब्रह्मलोक गमन
| धृष्टद्युम्न द्वारा द्रोणाचार्य के मस्तक का उच्छेद
नारायणास्त्र-मोक्षपर्व
| कौरव सैनिकों तथा सेनापतियों का भागना
| कृपाचार्य का अश्वत्थामा को द्रोणवध का वृत्तान्त सुनाना
| धृतराष्ट्र का प्रश्न
| अश्वत्थामा के क्रोधपूर्ण उद्गार
| अश्वत्थामा द्वारा नारायणास्त्र का प्राकट्य
| कौरव सेना का सिंहनाद सुनकर युधिष्ठिर का अर्जुन से कारण पूछना
| अर्जुन द्वारा अश्वत्थामा के क्रोध एवं गुरुहत्या के भीषण परिणाम का वर्णन
| भीमसेन के वीरोचित उद्गार
| धृष्टद्युम्न के द्वारा अपने कृत्य का समर्थन
| सात्यकि और धृष्टद्युम्न का परस्पर क्रोधपूर्ण वाग्बाणों से लड़ना
| भीम, सहदेव तथा युधिष्ठिर द्वारा सात्यकि और धृष्टद्युम्न को लड़ने से रोकना
| अश्वत्थामा द्वारा नारायणास्त्र का प्रयोग
| नारायणास्त्र के प्रयोग से युधिष्ठिर का खेद
| श्रीकृष्ण के बताये हुए उपाय से सैनिकों की रक्षा
| भीम का वीरोचित उद्गार और उन पर नारायणास्त्र का प्रबल आक्रमण
| श्रीकृष्ण का भीम को रथ से उतारकर नारायणास्त्र को शान्त करना
| अश्वत्थामा का पुन: नारायणास्त्र के प्रयोग में असमर्थता बताना
| अश्वत्थामा द्वारा धृष्टद्युम्न की पराजय
| सात्यकि का दुर्योधन, कृपाचार्य, कृतवर्मा, कर्ण और वृषसेन को भगाना
| सात्यकि का अश्वत्थामा से घोर युद्ध
| अश्वत्थामा द्वारा मालव, पौरव और चेदिदेश के युवराज का वध
| भीम और अश्वत्थामा का घोर युद्ध
| अश्वत्थामा के आग्नेयास्त्र से एक अक्षौहिणी पांडव सेना का संहार
| श्रीकृष्ण और अर्जुन पर आग्नेयास्त्र का प्रभाव न होने से अश्वत्थामा की चिन्ता
| व्यास का अश्वत्थामा को शिव और श्रीकृष्ण की महिमा बताना
| व्यास का अर्जुन से शिव की महिमा बताना
| द्रोण पर्व के पाठ और श्रवण का फल
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