भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
भाद्र कृष्ण अष्टमी
दिन में और रात्रि में भी– चाहे जब वह कक्ष सुरों या देवियों से भर उठता था। कभी कोई देवी एकाकी अथवा दो-चार भी आती थीं। अब कंस की परिचारिका के लिए कोई सेवा, कोई कार्य रह नहीं गया था। उसने यह बात संकेत से कंस को बहुत समझाने का प्रयत्न किया; किन्तु वह समझाती– ‘मेरा दिया भोजन वे नहीं करते’ या ‘मुझे कक्ष स्वच्छ नहीं करना पड़ता’ –और कंस संकेत का अर्थ लगाता– ‘वे भोजन नहीं करते। आंधी आयी आकाश से और कक्ष स्वच्छ हो गया।’ वह हँस देता या डाँट देता था। संकेत कर देता था कि ‘वह प्रतिदिन जाये। वे भोजन न करें तो भी उनके समीप भोजन रख दिया करे।’ एक दिन तो ब्रह्मा-शिव प्रभृति सभी देवता एक साथ देखे माता ने अपने समीप। वे पता नहीं हाथ जोड़े क्या-क्या स्तुति करते रहे थे। किसकी स्तुति? सम्भवत: गर्भस्थ शिशु की स्तुति। अवश्य उस दिन जाते-जाते चतुर्मुख ब्रह्माजी ने हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर माता को प्रणाम करके कहा था– ‘अम्ब! अब आप तुच्छ कंस से मत डरें। वह शीघ्र मरने वाला है। आपका सुत तो त्रिभुवन को संरक्षण देने आ रहा है।’ देवताओं का आवागमन बढ़ता ही गया। बढ़ती गयी देवियों की श्रद्धाभरित सेवा और बढ़ता गया माता देवकी का वह गर्भ। मात कहती थीं- ‘इस बार यह अदभुत ही आया है। मुझे इसका कोई भार नहीं लगता। इस बार तो लगता है कि मेरी स्फूर्ति, शक्ति बढ़ गयी है।’ ‘तुम्हारे तेज, सौन्दर्य तो असीम बढ़ गये हैं इस बार।’ वसुदेवजी कहते थे– ‘इस बार तो वह तुम्हारे अंक में बैठा मुस्कराता मुझे बार-बार दीखता है।’ अन्तत: वह दिन–वह अजन्मा के जन्म की तिथि भी आयी। भाद्र कृष्ण अष्टमी, भरी वर्षा की वह ॠतु और सर्वत्र लोग चकित रह गये उस दिन प्रभात से ही, ‘सरितायें बढ़ी हैं और उनमें स्वच्छ-निर्मल जल! मिट्टी, रेत, कहीं घास-तिनकों का नाम तक नहीं। शरद में भी जल में जो स्वच्छता नहीं आती, वह स्वच्छता।’ सरोवरों में राशि-राशि कमल और कुमुदिनियाँ एक साथ खिल उठीं उस दिन। सम्पूर्ण धरा– एक-एक तृण, बीरुध, लता, तरु पुष्पों से लद उठे। पर्वतों पर मणि राशि प्रकट हुई। वन में ही नहीं; ऊसर में भी तृण उग उठे और उन पर नन्हें पुष्प खिले। गिरि, कानन, धरा, जल, सर्वत्र एक विचित्र बात–मरुथल तक में वही विशेषता–मानों कहीं किन्हीं निपुण कला कुशल करों ने मणियों को, पुष्पों को, पल्लवों को और मरु तथा पुलिन के रेणु-कणों को सजाया है। सर्वत्र विचित्र-विचित्र मण्डल, नाना शिल्प-क्रम अपने आप व्यक्त हुए। ‘आज तो पक्षी तक शिल्प-मण्डल बनाकर उड़ते हैं।’ किसी एक ने नहीं–बहुतों ने लक्षित किया– ‘आज पक्षियों के कूजन और भृगों के गुंजार में लयबद्ध कोई स्वागत गीत गूंजता जान पड़ता है।’ ‘इतना प्रसन्न, इतना आनोन्दोल्लसति मन तो कभी नहीं हुआ।’ ऋषि-मुनियों ने ही नहीं, सामान्य सज्जन-वर्ग के सभी ने अनुभव किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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