भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
कंस आतंकग्रस्त
आज तो स्वयं उनके हाथ हथकड़ी में जकड़े थे। ‘छि:! अतिशय निर्दयता अच्छी नहीं।’ कंस के भीतर एक स्वर उठा। जैसे अब तक निर्दयता की सीमा टूटने में कुछ कमी रह गयी हो। ‘लोग इतनी क्रूरता सुनेंगे तो मुख पर भले कुछ न कहें, पीछे गाली देंगे मुझे, और मरने पर सचमुच नरक जाना पड़ेगा।’ सच बात यह है कि देवी देवकी के भीतर जो आ बैठा था, उस धर्म के परम प्रभु का सान्निध्य कंस के काले हृदय को भी कुछ किरणें अपने प्रकाश की दे रहा था। ‘यह स्त्री है, बहिन है और गर्भवती है।’ कंस की बुद्धि ने कहा– ‘अत्युग्र पाप प्रारब्ध बनकर तत्काल फल देता है। इतना उग्र पाप यश, श्री और आयु को भी तुरन्त चाट जा सकता है।’ ‘आयु–आयु ही न रहे तो यश और श्री कैसी?’ कंस ने ऐसे कौन से सत्कर्म किये थे कि मरने के पश्चात उसका यश रहेगा–यह विश्वास कर ले। इसी प्रकार जन्मान्तर में ऐश्वर्य–श्री के मिलने की आशा वह किस आधार पर करे? ‘हरि इसके भीतर आ चुका।’ कंस के अन्तर्मन में से एक आतंक जागा– ‘वह देवी का अष्टम गर्भ तो बन चुका। अब मैं देवकी पर हाथ उठाऊँ और वह अभी प्रकट हो जाय! प्रह्लाद को बचाने वह खम्भे में से प्रकट हो गया था। कब किस रूप में प्रकट होगा–क्या ठिकाना उस मायावी का।’ ‘अच्छा, इसे जीने ही दो।’ कंस को लगा वह बहुत दया कर रहा है–‘इतना क्रूर मैं नहीं बनू्ँगा।’ कारागार से वह लौट पड़ा। रक्षकों को कड़े आदेश दिये। द्वार, अर्गलादि की स्वयं परीक्षा की। कुछ सैनिक और भेजे कारागार पर। वसुदेव जी की ओर उसने आते ही देखा था और उधर से निश्चिन्त हो गया था। वह फिर देवकी को ही देखता रहा था और लौटा भी तो एक सर्वग्रासी चिन्ता लेकर लौटा। ‘हरि देवकी में आया! वह उसका अष्टम गर्भ बन चुका। अब वह कहीं से प्रकट हो सकता है।’ कंस जल देखकर चौंकता है– ‘वह मत्स्य बना, कच्छप बना–कहीं इस बार मकर बन जाये तो? वह तो नन्हीं शफरी बना था पहले–कहीं नन्हीं– बहुत नन्हीं जोंक बनकर मेरे उदर में उतर जाये और वहाँ बढ़ने लगे–वह वामन से विराट बनने वाला!’ अपने उदर को वह छूता है और काँपता है। ‘वह वाराह बन गया, हयशीर्ष बन गया, हंस बन गया।’ कंस को प्रत्येक पक्षी, प्रत्येक पशु अब हरि दीखता है– ‘वह इस बार काक, गौ या हाथी बनकर क्यों नहीं आ सकता?’ अपनी अश्वशाला के अश्वों से, अपने गजों से–वृषभों और गायों से ही नहीं–आजकल तो कंस बकरियों तक से भयभीत हो जाता है– ‘यह अभी बकरी है, अभी भयानक महिष या व्याघ्र बनकर कूद पड़े मुझ पर तो?’ ‘वह मोहिनी बना, वामन बना, परशुराम बना।’ कंस ने जो कुछ सुना है, वह उसके लिए आतंक बन गया है। अब वह अपनी पत्नी, अपने सेवक, अपने मन्त्री तक को देखकर चौंकता है–खड्ग खींच लेता है–यह आया हरि! यह आया हरि! यह आया हरि!’ सब कहते हैं– ‘महाराज को भयोन्माद हो गया है।’ सब सच कहते हैं; किन्तु सब सत्य हैं या कंस सत्य है? सब-सब रूप, समस्त सृष्टि वे हरि ही हैं, यह क्या सत्य नहीं है? कंस असत्य कहाँ देखता है। लेकिन कंस का सत्य-दर्शन–बड़ा दु:खद, बहुत उत्पीड़क हो गया है उसके लिए। वह भोजन की थाली, पहनने को आये वस्त्र, अपने ही शस्त्र अथवा सेवक-सेविका को चौंक-चौंककर नेत्र फाड़कर, खड्ग सम्हालकर देखने लगता है। उसके समीप आने में उसकी पत्नी तक अब काँपती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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