भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
अष्टम गर्भ
वही उस शेष की भोग शैय्या पर आधे लेटे पीताम्बरधारी इन्द्रीवर नील विशाल बाहु परमपुरुष। वे तो अपने दक्षिण कर में लिये उस दिन के कृष्णकेश को अब तक देख रहे हैं। बड़े ध्यान से देख रहे हैं। सहसा उन कमल लोचन ने उसी दिन की भाँति मुस्कराकर माता की ओर देखा और हाथ के केश को छोड़ दिया। यह केश भी उस दिन के श्वेत केश के समान नृत्य करता बढ़ा आ रहा है। यह केश है या वे चतुर्भुज वनमाली स्वयं हैं? यह कभी केश बनता है और कभी घनसुन्दर चतुभुर्ज पीताम्बरधारी; किन्तु यह तो शिशु है–अत्यन्त सुन्दर शिशु। कब तक माता वात्सल्य-विभोर देखती रहीं–किसे पता है। दम्पत्ति में किसी को पता नहीं लगा कि दिन कब बीता और रात्रि कब आयी। उस दिन परिचारिका ने आकर क्या किया और कब चली गयी। रात्रि भी कब बीती, पता नहीं लगता था। सहसा वसुदेव जी का कर देवकी के शरीर पर पड़ा और उनकी स्थिति बदल गयी। उनका वह आह्लाद-सागर लुप्त हो गया। उन्होंने दृष्टि खोली और देखते रह गये। वही-वही तो शिशु है जो हृदयकमल की कर्णिका पर हँस रहा था। अब वह देवकी के अंक में आ बैठा है। माता का स्वप्न-वह केश, वह शिशु- वह आता गया समीप और समीप आकर वह केश माता के मुख में प्रविष्ट हो गया पहले के समान। माता ने चौंककर नेत्र खोले। अपनी ओर विमुग्ध भाव से वसुदेव जी को देखते देखकर वे लज्जा से सिमट कर बैठ गयीं। ‘प्रभात हो गया?’ माता ने अचानक दिशाओं में फैली अरुणिमा देखी। कहना तो चाहती थीं– ‘सन्ध्या हो गयी?’ लेकिन उनके श्रीमुख से इस समय सत्य ही तो निकल सकता था। ‘सचमुच प्रभात हो गया देवि!’ वसुदेव जी को भी समय का बोध नहीं था। वे अब तक सहधर्मिणी के अंक में आ बैठे उस शिशु की छवि-छटा में विभोर बोल रहे थे– ‘लगता है कि हमारी विपत्ति-निशा बीत गयी। उसमें प्रभात का प्रकाश आ गया है।’ ‘आप!’ देवकी जी ने अब ध्यान दिया कि उनके स्वामी का वह स्वरूप इस समय नहीं है, जो कल उन्होंने देखा था। अब वसुदेव जी अपने सामान्य स्वरूप में ही हैं। अचानक कक्ष द्वार खुला। परिचारिका डरते-डरते भीतर आयी और उलटे पैर बाहर भाग गयी। कक्ष द्वार बहुत शीघ्रता से बन्द हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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