भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
अष्टम गर्भ
वसुदेव तो इस समय सृष्टिकर्ता की सचराचर सृष्टि के लिए दुरासह-दुर्धर्ष हैं। इनकी केवल आज्ञा मानी जा सकती है। इन्हें किसी कार्य से वारित नहीं किया जा सकता।’ कंस शीघ्र हट गया वहाँ से। उसने उसी दिन वसुदेव-देवकी को हथकड़ी-बेड़ी पहनाने की आज्ञा दे दी। यह भी इसलिए हो सका कि वसुदेव ने कोई प्रतिवाद नहीं किया और स्वयं कंस कक्ष से बाहर खड़ा रहा। वैसे यह वसुदेव जी के सामने फिर नहीं पड़ा। उसे भय लगता था– ‘वसुदेव कोई आज्ञा न दे बैठें।’ वसुदेव जी को अपने ही शरीर की सुधि नहीं थी। एक अनिर्वचनीय आनन्द-समुद्र हिलोरें ले रहा था उनके भीतर। वे बार-बार देखते और विभोर होते– ‘एव नवजलधर सुन्दर, आनन्दघनैकमूर्ति, पीताम्बर परिधान, सुदीर्घ चतुर्बाहु, कमल लोचन, वनमाली-मेरे आराध्य श्रीहरि।’ वसुदेव पुलकित होते, उनके सम्पूर्ण शरीर में रोमांच होता, स्वेदधारा चलती देह से; किन्तु वह श्रीमूर्ति प्रणम्य नहीं बनती थी। वह तो मुस्कराता अंक में आ बैठता था और वात्सल्य उमड़ता था उसके प्रति। क्षण-क्षण जैसे नवीन-नवीन होकर वह आता था। वह भुवनैक सुन्दर-वसुदेव जी की दृष्टि संसार कहाँ देख पा रही थी। उन्हें कहाँ अपना पता था उस समय। देवकी जी अपने स्वामी जी का तेज–उनकी अवस्था विमुग्ध देखने में तल्लीन थीं। उन्हें भी पता नहीं लगा कि कब कंस आया, कब गया। कब उनके या वसुदेव जी के हाथ-पैरों में हथकड़ी-बेड़ी डाली गयी। ‘मेरे स्वामी महापुरुष हैं। परमपुरुष।’ देवकी जी मन ही मन दुहराती रहीं–मैंने कहाँ यह विश्वास कभी खोया था। इस दासी पर प्रसन्न होकर अब इन्होंनें अपने स्वरूप का दर्शन कराया है इसे।’ ‘द्वार सदा बन्द रखो। केवल परिचारिका के लिए खोलो और उसके भीतर जाते ही बन्द कर दो।’ कंस ने उस दिन कारागार से जाते समय आदेश दिया– ‘द्वार की कीलें, श्रृंखलायें आज ही द्विगुण कर दी जायगी। मैं और द्वार-रक्षक तुम्हारी सहायता को भेज रहा हूँ; किन्तु सावधान! वसुदेव के सम्मुख किसी को नहीं पड़ना चाहिये। उनके कक्ष-द्वार तक कोई नहीं जायेगा। वे कदाचित आते दीखें द्वार की ओर तो द्वार बन्द करके सब इतनी दूर चले जाओ कि उनकी पुकार सुनायी न पड़े और तत्काल मुझे समाचार दो।’ कंस जानता था कि इतना प्रबन्ध पर्याप्त नहीं है। उसे स्वयं शंका थी कि वसुदेव आज्ञा दें तो जड़ किवाड़ बन्द रहेंगे या उनकी आज्ञा का पालन करेंगे; किन्तु वह इससे अधिक और कर भी क्या सकता था। सेवकों के सम्मुख अपनी दुर्बलता प्रकट न हो जाय, इसलिए वह शीघ्र चला गया। देवी देवकी अपने स्वामी का दर्शन करते-करते उनके चरणों में पड़ गयी थीं और फिर उन्हें पता नहीं लगा कि कितनी देर वे वहाँ आनन्द-समाधि में सुप्त रहीं। सहसा उन्हें वह एक बार का देखा स्वप्न फिर दीखने लगा। वे पीछे भी सदा कहती थीं– ‘स्वप्न भी ज्यों के त्यों कई बार दीखते हैं।’ वही असीम उच्छलित उज्वल उदधि। वही अकल्पनीय प्रकाशराशि। वही सहस्त्रशीर्षा कमलतन्तु श्वेत शेष और उनके फणों पर लाल-लाल मणियाँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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