भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
उपक्रम
प्रजा के परम प्रशासक, परम भागवताचार्य भगवान धर्मराज भले इस मानव विग्रह में रहें; किन्तु पितृव्य! आपको पहिचान कर भी कोई ऐसा श्रेयस्कामी मिलेगा जो आपकी सन्निधि का सौभाग्य छोड़ दे?’ ‘मुझे भी आप अनाधिकारी तो नहीं मानेंगे।’ उद्धव ने तनिक रुककर कहा- ‘भगवच्चरित मैंने जो देखा है, सुना है- सुनाऊंगा; किन्तु पितृव्य! आप कृपा करें। कर्म एवं भक्ति के परम रहस्यज्ञों के आप शिरोमणि हैं। आप ही सगुण तत्व और अवतार का ठीक कारण जानते हैं। भगवच्चरितों को समझने में मैं सफल हो जाऊंगा यदि आप अनुग्रह करेंगे।’ ‘उद्धव ! तुमको कुछ जानना-समझना शेष है, ऐसा शक्य नहीं है, किन्तु तुम मुझे गौरव देना चाहते हो। श्रीकृष्ण के अनुग्रह–भाजन का यह शील स्वाभाविक है।’ विदुर ने गद्गदकण्ठ कहा- ‘तुमसे कोई चर्चा करके वाणी और हृदय परिपूत ही होता है।’ यमुना-तट पर मथुरा के समीप दोनों महाभागवत सम्पूर्ण रात्रि इस प्रकार चर्चा में संलग्न रहे। यह चर्चा उसी दिन समाप्त नहीं हो गयी। दोनों वहाँ से साथ-साथ हरिद्वार तक आये। दोनों को भूल ही गया कि शरीर को आहार एवं निद्रा की भी आवश्यकता होती है। दोनों के दिव्य देह-अत: देह ने इन्हें अपनी ओर आकर्षित नहीं किया। स्नान, संध्या, नित्योपासना-यह ऐसा कार्य था जो प्रात: ब्राह्म-मुहूर्त में प्रारम्भ होता, मध्याह्न में और सायंकाल भी चलता। इसके अतिरिक्त यात्रा-लगभग एक
योजन[1] प्रतिदिन और वह बहुत धीर-पदों से; क्योंकि दोनों महाभाग भगवच्चिन्तन करते चलते थे। ‘यह अच्छा सघन वृक्ष है और जल का सान्निध्य भी है।’ दोनों में-से कोई कह देता। दिन में विश्राम को तो जल का सान्निध्य भी आवश्यक नहीं था। दिन में बैठे जाँये अथवा रात्रि में, दोनों को एक ही कार्य, एक ही व्यसन-उनकी चर्चा चल पड़ती। उनकी चर्चा-कहते हैं कि जब वे परस्पर चर्चा करने लगते थे, वायु के पद भी मन्द हो जाते थे। दिशाऐं शान्त हो जाती थीं। आसपास के पशु-पक्षी समीप घिर आते थे और शान्त श्रवण करने लगते थे। वे चलते थे-दोनों उस समय परिव्राजक थे। वे जब दिन में चलते थे- मेघ ही नहीं, सुरों के विमान भी उन पर छाया करते चलते थे। तरू-लताएँ उनके पथ को पुष्प वर्षा से प्रशस्त बनाये रखती थीं। उनके कहीं बैठने का संकल्प करते ही कपि-समूह कोमल किसलय का आस्तरण प्रस्तुत कर देता था; किन्तु उनमें किसी की दृष्टि इस सतत चलते आयोजन पर पड़ी ही नहीं। उन्होंने तो स्नानोपासना के अनन्तर रीछों के लाये कन्द-फलों का उपहार भी यदा-कदा ही स्वीकर किया और वह भी लाने वाले के स्नेह को मात्र सत्कृत करने के लिए। वे भगवन्मय, भगवत्प्राण-अहर्निशि वे तन्मय रहे और उनकी चर्चा से दिशाएँ परिपूत होती रहीं। उनकी चर्चा विरमित हुई गंगाद्वार पहुँचकर। वहाँ उद्धव ने विदुर से अनुमति ली-दोनों भुजा फैलाकर मिले। विदुरजी चले गये मैत्रेयाश्रम की ओर और उद्धव ने बदरीवन को प्रस्थान किया। वह नित्यवाणी-वह अन्तराल को अब भी पावन बना रही है। आप एकाग्र हों- श्रीकृष्ण कृपा करें तो असम्भव नहीं कि आप उसे आज भी सुन सकें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सात मील
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