भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
महाराज उग्रसेन भी बन्दी बने
‘सेनापति को समाचार दो कि मैंने आज्ञा दी है कि राजभवन घेर लिया जाय।’ कंस ने तत्काल अंग-रक्षकों को दौड़ाया। महाराज उग्रसेन को और उनके अंग-रक्षकों तथा यादव-तरुणों को राजद्वार से बाहर आने का अवकाश नहीं मिला। सेना पहले से कंस का आदेश पाकर सन्नद्ध थी। आज्ञा मिलते ही राजभवन पर सेनापति ने घेरा डाल दिया। ‘उग्रसेन को बन्दी करो।’ कंस ने पहुँचते ही दहाड़कर सेनापति को आज्ञा दी। अब उसमें पिता का कोई संकोच शेष नहीं रहा था। वहीं युद्ध आरम्भ हो गया। कंस के असुर सेनानायक राजसभा के द्वार से घुस जाना चाहते थे और यादव-तरुण प्राणपण से उन्हें रोकने में लगे हुए थे। कुछ काल कंस इस भयंकर युद्ध को देखता रहा अपने ही रथ में बैठा हुआ, लेकिन बहुत थोड़े काल तक। उसमें प्रतीक्षा करने का धैर्य नहीं था। उसने देख लिया रथ पर से ही कि महाराज स्वयं खड्ग लिये आगे बढ़ रहे हैं। उसके असुर-नायक आहत होकर भी उन पर आघात करने में हिचक रहे हैं। रथ से कंस कूदा और उसने गदा उठा ली। उसके अपने सैनिकों ने हटकर उसे मार्ग दे दिया। स्थिति सर्वथा विपरीत हो गयी। यादव तरुणों पर कंस का निर्मम गदाघात उन्हें धराशायी करने लगा; किन्तु वे शूर असुर सैनिकों पर जिस उत्साह से आघात कर रहे थे, अपने ही राजकुमार पर उस प्रकार उनके हाथ उठ नहीं पा रहे थे। उन्होंने भी लगभग हटकर ही कंस को मार्ग दिया। कंस ने पिता पर हाथ उठाने में कोई संकोच नहीं किया। उसने महाराज की दक्षिण भुजा पर गदा चलायी। आघात लगने से महाराज के हाथ से खड्ग छूटकर दूर जा गिरा। ‘तू मेरा पुत्र नहीं है।’ अब महाराज की दृष्टि सम्मुख गदा लिये खड़े कंस पर पड़ी। वे पूरे तेजस्वी स्वर में बोले- ‘मैंने तेरा त्याग किया। नराधम! तू वध कर मेरा!’ अपने हाथ से महाराज ने राजमुकुट उतार फेंका और श्वेतकेश मण्डित मस्तक झुका दिया। ‘बन्दी करो इसे!’ कंस बिना हिचक चिल्लाया, किन्तु कोई असुर भी महाराज को बन्दी करने का साहस नहीं कर सकता था। कोई आगे नहीं बढ़ा। ‘चुपचाप आगे बढ़ो।’ कंस ने क्रोधपूर्वक चारों ओर देखा और स्वयं उसने बायें हाथ से पिता का हाथ पकड़ा। उन्हें लगभग घसीटता-सा वह द्वार की ओर बढ़ा। महाराज के अंग-रक्षकों और यादव-तरुणों के शव बिछ गये थे वहाँ चारों ओर। सम्पूर्ण सभा-भवन रक्त से लथपथ हो रहा था। सेना ने विजय प्राप्त कर ली थी और आहत अथवा शेष बचे विपक्षी शूरों को क्रूर असुर समाप्त करने में लगे थे। कंस को मार्ग में रोकने वाला अब कहीं कोई नहीं था। उसके असुर सेनानायक उसके दोनों पार्श्व में शस्त्र उठाये चलने लगे थे। उसी रथ पर जिस पर वसुदेव-देवकी को कंस ने कारागार पहुँचाया था, उग्रसेन जी को उसने बलपूर्वक बैठा दिया। उसी दिन सूर्यास्त होते-होते कारागार का द्वार फिर खुला और उसके दूसरे भाग में महाराज उग्रसेन को कंस ने स्वंय उतारकर बन्द किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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