भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
देवर्षि आये
ब्रह्माजी ने ‘तथास्तु‘ कहा और स्वधाम चले गये; किन्तु जब लौटकर इन्होंने हिरण्यकशिपु को अपने वरदान का समाचार दिया तो वह क्रुद्ध हो उठा- ‘मूर्खों! तुम यह परम्परा चलाना चाहते हो कि मेरे कुल के लोग ही मुझे छोड़कर अन्य की आराधना करें और मनमाना वरदान प्राप्त करें। तुम तो मेरे पुत्र थे मेरी आराधना के बिना भी मुझसे वरदान पा सकते थे। तुम अत्यन्त अज्ञानी हो, अत: मैं तुम्हारा त्याग करता हूँ। तुम सुतल में जाकर दीर्घकाल तक निद्रा के वशवर्ती रहो। तुम्हारे पूर्व जन्म का पिता ही तुम्हारा वध करेगा।’ ‘अन्तत: हिरण्यकशिपु भवगत्पार्षद विजय ही तो है।’ देवर्षि ने कहा– ‘उसका शाप सत्य होना चाहिये था। कालनेमि ने कंस के रूप में जन्म लिया, अब वह अपने पुत्रों का वध न करता तो वह शाप कैसे सत्य होता? भगवान नारायण के आदेश से योगमाया उन षड्गर्भ को क्रमश: देवकी के गर्भ में स्थापित कर रही थीं। सुतला में सदा निद्रा में सुप्त रहनेवाले षड्गर्भों के शरीर कितने समय अविकृत रहते, यदि यहाँ कंस शिशुओं को मारकर उनके सूक्ष्म शरीर को अपने दैत्य देह में जाने के लिए स्वतन्त्र न करता रहता?’ ‘दूसरा प्रयोजन भी था।’ देवर्षि ने स्वयं ही बतलाया था– ‘सृष्टिकर्ता का शाप भगवान वासुदेव सान्निध्य प्राप्त करके समाप्त हो जाना था। उस समय तो देवकी के इन छहों पुत्रों के अपने स्वरूप-ब्रह्मलोक में देवता होकर जाना ही था। लेकिन तब इनका कंस वध करता, यह कितना अप्रिय और अमंगल कार्य होता।’ हिरण्यकशिपु के शाप के कारण जब कंस के करों से इनका वध होना ही था तो देवर्षि का निर्णय उचित था। वे कुमार बड़े हुए होते तो माता का मोह उनमें और भी अधिक होता और तब उसके वध से माता-पिता को बहुत अधिक व्यथा होती, यह बात सहज ही समझ में आने योग्य है। शरणागतवत्सल, निज जन परित्राता श्रीहरि के अवतार ले लेने के पश्चात उनके अग्रजों को कंस मार देता–यह बात भी उन निखिल ब्रह्माण्डनायक के लिए अशुभ ही बनती। उन शिशुओं का मंगल था इसी में और कंस का भी इसी में मंगल था कि उसका दारुण-अत्याचार बढ़े तो श्रीहरि को आने की त्वरा हो। उन के बिना कंस का उद्धार तो सम्भव नहीं था। देवर्षि का तो व्रत है कि जो मिले उसका जैसे भी हो, उद्धार करना। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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