भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
उपक्रम
बिखरे-रुखे केश, मलिन वसन, क्षीणकाय, बढ़े श्मश्रु; किन्तु यह तेजोमय भव्य श्रीमुख, ये बृहद्बाहु, यह प्रलम्ब गौर शरीर और ये परम सौम्य सुदीर्घ लोचन-भले अवधूत प्राय वेश हो, इन्हें भी क्या पहचानने में उद्धव भूल कर सकते हैं? इन पाण्डव–परित्राता, कौरव कुल महामणि, श्रीकृष्णैक प्राण विदुर को उद्धव नहीं पहिचानेंगे, ऐसा भी कभी सम्भव हो सकता है? बड़ी देर तक विदुर ने उद्धव को अपने आलिंगन से छूटने नहीं दिया। छूटने पर उद्धव ने चरण-वन्दन की और फिर विदुर ने हृदय से लगा लिया। दो समान व्यक्ति मिले- कुशल यही कि दोनों महाप्राण, दोनों परम नीतिज्ञ, दोनों सहज विरक्त एवं भगवद्भक्त, दोनों परमतत्वज्ञ। अन्यथा विधि की विडम्बना तो यह कि दोनों का प्राय: सम्पूर्ण वंश समाप्त हो चुका-परस्पर ही संघर्ष करके नष्ट हो चुका। कुशल प्रश्न कौन किससे करे? विदुर ने यदुवंश और अपने वंश की परिसमाप्ति भी सुनी उद्धव से; किन्तु उन महामति ने चित्त को शीघ्र स्थिर कर लिया। उन स्थितप्रज्ञ ने पूछा- ‘उद्धव! तुम श्रीकृष्ण के परमान्तरंग सुहृद हो। उन्होंने तुम्हें तत्त्वोपदेश किया है अन्तिम समय में और तुमने उनके दिव्य चरित देखे हैं। तुम उस तत्वज्ञान के श्रवण का और भगवान वासुदेव के मंगलमय चरितों के श्रवण का भी यदि मुझे अधिकारी समझो.... ‘आप यह क्या कहते हैं?’ विदुर के चरण पकड़ लिये उद्धव ने- ‘भगवान वासुदेव ने महर्षि श्रीकृष्णद्वैपायन के परम सखा मैत्रेय की उपस्थिति में ही मुझे उपदेश किया और अन्त में अपने स्वधाम-गमन के उस पूर्वक्षण में - आपका स्मरण किया।’ ‘भगवान वासुदेव ने अन्तिम क्षणों में मेरा स्मरण किया?’ विदुर विह्वल हो गये। ‘प्रभु ने महर्षि मैत्रेय से उपदेश का उपसंहार करके कहा, उद्धव ने बतलाया- ‘मैत्रेय जी ! उद्धव छोटा है और तत्वज्ञान की मर्यादा है कि उपदेष्टा में श्रद्धा न हो तो श्रवण होने पर भी वह अन्तर में प्रकाशित होगा- इसमें सन्देह रहता है। विदुर जी परम विनम्र हैं, शुद्धान्त: करण हैं, सम्यक श्रद्धावान हैं; किन्तु अकारण मर्यादा के विपरीत कोई परम्परा क्यों स्थापित हो। विदुर को इस तत्वज्ञान का उपदेश आप कर देना।’ ‘करुणासिन्धु!’ विदुर के नेत्र झरने लगे और उद्धव तो अपने आराध्य का नाम आते ही विह्वल हो गये थे। कुछ समय लगा दोनों को उस आवेग से स्थिर होने में। अन्त में दोनों ने ही अपने नेत्र पोंछे। विदुर ने कहा- ‘तात! मैंने सुना है कि महर्षि मैत्रेय इन दिनों गंगा द्वार[1] में निवास करते हैं। तुमको भी नर-नारायणाश्रम जाने के लिए वहीं से जाना है। इस थोड़े काल का साहचर्य प्राप्त हो जायेगा मुझे और भगवान वासुदेव के मंगल-चरित तुमसे अधिक जानने वाला मुझे अब कोई कहाँ मिलेगा! तुम उन चरितों को मुझे सुनाओ! तुम्हें आपत्ति न हो तो गंगाद्वार तक की यात्रा मैं तुम्हारे साथ कर लूँ।’ ‘मेरा अहोभाग्य!’ उद्धव ने मस्तक झुकाया- ‘सुर भी आपकी सन्निधि पाकर कृतार्थ ही होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हरिद्वार
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