माता देवकी
आशा की अपेक्षा बहुत शीघ्र महर्षि मथुरा लौट आये थे। उन्होंने महाराज उग्रसेन से लौटकर कहा- ‘महाराज मैंने प्रमुख राजकुल देख लिए। एकान्त में त्रिभुवन के, सुर-असुर सबके प्रधान पुरुषों की कुण्डलियों पर विचार कर लिया। देवकी के लिए वसुदेवजी के अतिरिक्त त्रिभुवन में दूसरा उपयुक्त वर नहीं है।’
कंस तत्काल उठ खड़ा हुआ था राजसभा में- ‘मैं प्रारम्भ से कह रहा हूँ कि बेचारी बालिका मथुरा से दूर भेज दी जायगी तो दु:खी हो जायगी। वैसे ही वह गूंगी जैसी है। अपने अभाव-कष्ट की बात कहना उसे आता नहीं है। उसके शील-स्वभाव से परिचित स्वजनों से दूर उसे कैसे भेजा जा सकता है? उसकी सब बहिनें जहाँ हैं, वहीं वह रहे।’
सचमुच कंस का प्रारम्भ से आग्रह था कि देवकी का विवाह वसुदेवजी के साथ ही हो। प्रतिवाद सहन करना कंस के स्वभाव में नहीं था। देवकीजी के प्रति अतिशय स्नेह के कारण पिता के निर्णय में उसने पहिले बाधा नहीं दी थी। अब महर्षि की बात सुनकर उसने निश्चित स्वर में कहा- ‘महर्षि! आप मुहूर्त निश्चित करें।’
‘शूरसेनजी से पूछना होगा पुत्र।’ महाराज उग्रसेन ने हंसकर कहा- ‘वसुदेवजी भी अब बालक नहीं हैं। उनकी भी अनुमति आवश्यक है।’
‘आप भी अद्भुत हैं महाराज।’ कंस खुलकर हँसा- ‘शूरसेनजी को किसी की भी प्रार्थना अस्वीकार करना आता है? नियम पूरा कर लें आप या पितृव्य देवकजी उन तापस के सम्मुख जाकर। वे तो स्वीकृति और आशीर्वाद देना ही जानते हैं। महर्षि की मुहूर्त–गणना अनुमति देती हो तो मैं वसुदेवजी के पास अभी जा रहा हूँ।’
‘तुम्हें अनुमति है तात!’ महर्षि ने कंस की ओर देखकर गम्भीर वाणी में कहा- ‘तुम प्रारम्भ करो। अथ में इति का सदा सन्निवेश रहे, यही विधाता का विधान है।’
कंस ने या किसी ने नहीं ध्यान दिया आचार्य की गुढ़ वाणी पर। विवाह तो उसी दिन निश्चित हो गया। शूरसेनजी ने सहर्ष नारियल स्वीकार कर लिया।
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