माता देवकी
स्वर्गीय सुरभि के समान ही सबके लिए नित्य सुप्रसन्ना, सर्वकामवर्षिणी, अनन्त वात्सल्यमयी, सम्पूर्ण कुल की– यादव राजससदन की वे अधिदेवता थीं और सुर भी आकर उनकी चरण-वन्दना ही करते थे।
माता देवकी महाराज उग्रसेन के अग्रज देवक जी की सबसे छोटी कन्या थीं। कंस का जब वे शिशु थीं, तब से उन पर असीम स्नेह था। वैसे तो कंस अपने सभी स्वजनों का बहुत ध्यान रखता था पहिले। कंस कहता था- ‘मैं अपनी छोटी बहिन का ऐसा विवाह करूंगा कि दीर्घ काल तक राजकुमारियाँ वैसे विवाह का स्वप्न देखा करेंगी।
माता देवकी शैशव से शान्त-गम्भीर ही रही हैं। पितामही कहती थीं कि ‘यह बालिका नन्हीं थी तब भी चपल नहीं थी। तब भी अपने खिलौने दूसरी सहेलियों को बाँट देती थी। इसे तो तब भी पूजा-खेल ही प्रिय लगता था-जब देखो, तब पूजा करने में लगी है।’ महाराज उग्रसेन ने अग्रज को प्रसन्न कर लिया इसके लिए कि देवकी का विवाह उसकी इच्छानुसार हो। महर्षि गर्ग को उन्होंने पृथ्वी में देवकी के उपयुक्त वर ढूंढने को कहा और महर्षि की यात्रा की व्यवस्था कर दी।
यदुकुल को सबने तभी महान भाग्यशाली समझ लिया था जब महर्षि गर्ग ने यादव पौरोहित्य स्वीकार कर लिया। भगवान शंकर के साक्षात शिष्य, परम तपोधन, ज्योतिष शास्त्र के मूर्तिमान विग्रह गर्गाचार्य जी पौरोहित्य स्वीकार करेंगे, यह सम्भावना ही किसी को नहीं थी। जब यह सम्वाद मिला- पितामह भीष्म बोल उठे- ‘निश्चय यदुवंश का अतिशय उत्कर्ष-काल आ पहुँचा है। महर्षि गर्ग को भी जिस कुल का पौरोहित्य पद प्रलुब्ध करें, उस कुल का उत्कर्ष, लगता है उन सर्वदर्शी को दीख गया कि परम पुरुष इस कुल में आने वाले हैं।’
पितामह जैसे भगवद् भक्त, धर्मैकमूर्ति, नैष्ठिक ब्रह्मचारी का मानस असत्य स्पर्श नहीं करता- न कर सकता था। सवने तब से ही यादव कुल से अपने सम्बन्ध को बहुत महत्व देना प्रारम्भ कर दिया था। देवी पृथा तब से पितामह की अतिशय स्नेह भाजन हो गयी थीं।
महर्षि गर्गाचार्य जी अकस्मात भ्रमण करते हुए एक दिन मथुरा की राजसभा में आ गये थे। उनकी कीर्ति से भला कौन परिचित नहीं था। महाराज उग्रसेन ने उनकी विधिवत अर्चा करके उन्हें सन्तुष्ट किया और प्रार्थना की- ‘हम अपने को कृतकृत्य मानते यदि आचार्य चरण युदकुल के पौरोहित्य को स्वीकार करके हमको अपने अभय करों की छाया में ले लेते।’
महर्षि ने एक क्षण को नेत्र बन्द किये और स्वीकृति दे दी। उसी दिन उनके आवास की व्यवस्था मथुरा में महाराज ने कर दी। सम्पूर्ण यदुवंश के पुरोहित होने पर भी महर्षि अपने सात्वतकुल के यजमानों को और विशेषत: पितामह शूरसेन जी के कुल को बहुत अधिक स्नेह देते थे। वे वीतराग प्रसन्नतापूर्वक देवकी जी के लिए वर ढूंढ़ने चले गये। वैसे इस कार्य के लिए उनसे अधिक उपयुक्त पात्र दूसरा हो नहीं सकता था। उन सर्वज्ञ को तो कहीं किसी से कुछ पूछना था नहीं। प्रसिद्ध राजकुलों के कुमारों को एक दृष्टि देखना मात्र था उन्हें।
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