भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
युवराज कंस
कंस वह धनुष मथुरा ले आया था। जिस दिन श्रीकृष्णचन्द्र ने उसे तोड़ दिया, कंस की चिन्ता का पार नहीं था उस दिन। समुद्र तट पर रहने वाला सर्पाकार अघासुर वहाँ पहुँचने पर कंस को निगलने ही लगा था; किन्तु कंस ने उसे पटक कर ऐसा रौंदा कि गले में लपेटने पर भी अघ शिथिल ही बना रहा। वह भी अनुचर बनकर आ गया। अधिकांश नरेशों ने बिना युद्ध किये मथुरा का आधिपत्य स्वीकार करके युवराज को कर दे दिया। नरकासुर के यहाँ प्राग्ज्योतिषपुर में प्रलम्ब, धेनुक, तृणावर्त, बकासुर जब कंस से हार गये तो बकासुर की बहिन पूतना युद्ध करने आ गयी। कंस ने उससे कहा- ‘यह बक मेरा भाई हुआ। तुम मेरी बहिन बनकर मथुरा में रहो।’ स्त्री से युद्ध करके विजयी होने में कोई यश नहीं और पराजित होने में अत्यन्त अपशय है, यह बात कंस समझता ही था। उसने नीति कुशलता से पूतना को मना लिया। लेकिन भौमासुर ने युद्ध नहीं किया। उसने हंसकर कंस को हृदय से लगाया और कह दिया- ‘हम दोनों परस्पर मित्र रहें। परस्पर युद्ध की बात क्यों की जाय।’ कंस ने उसकी नीति-कुशलता को स्वीकार कर लिया। इसी प्रकार शम्बरासुर ने भी कंस से मैत्री कर ली बिना युद्ध किये। व्योमासुर ने युद्ध किया त्रिकूट पर और हार कर सेवक बन गया। सबसे भिन्न कार्य किया बाणासुर ने। कंस ने उसके यहाँ जाकर युद्ध के लिए ललकारा तो उस सहस्रबाहु ने कहा- ‘मैं किसी अल्प प्राण से युद्ध नहीं करता। इससे मुझे व्यथा होती है। तुम पहिले मेरा पैर उठा दो।’ वाण ने भूमि पर पैर पटका। उसका चरण घुटने तक भूमि में धंस गया। कंस ने चरण उठा तो दिया, किन्तु इतना श्रम पड़ा कि क्लान्त हो गया। वह विजय के सम्बन्ध में सशंक हो ही गया था, भगवान शिव ने रोक दिया आकर- ‘तुम परस्पर युद्ध मत करो। मित्र बनकर रहो।’ कंस ने सहर्ष इसे स्वीकार कर लिया। पश्चिम दिशा में वत्सासुर को कंस ने पछाड़ कर सेवक बनाया; किन्तु कालयवन से मित्रता कर ली। यह कंस ने बुद्धिमानी की; क्योंकि उसे पता था कि कालयवन को युद्ध में अपराजित रहने का वरदान प्राप्त है। कंस ने इसके पश्चात् अमरावती पर आक्रमण कर दिया। यह समाचार मथुरा आया तो महाराज बहुत रुष्ट हुए। उन्होंने कंस को तत्काल मथुरा लौटने का आदेश भेजा। आदेश पहुँचने में देर हुई। कंस आदेश पाकर लौट आया, अन्यथा वह अन्य लोकपालों की पुरियों पर चढ़ाई करता। उसकी योजना तो असुर-नाग लोकों को जीतकर त्रिभुवन–विजय करने की थी; किन्तु अमरावती को वह आदेश मिलने से पूर्व ही पराजित कर चुका था। देवताओं से उसने युद्ध किया और जब उसके मुद्गर के आघात से देवराज के हाथ से वज्र गिर पड़ा, देवताओं में बहुत से भाग गये। शेष ने पराजय स्वीकार कर ली। कंस वहाँ से देवराज का छत्र युक्त सिंहासन लेकर मथुरा लौट आया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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