भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
मथुरापुरी
चौरासी कोस की सम्पूर्ण ब्रजधरा भूदेवी का हृदय है और उसमें गोवर्धन, नन्दग्राम, बृहत्सानु (बरसाना), मथुरा, वृन्दावन का मण्डल हृदय कमल की मध्य कर्णिका है। इस कर्णिका पर वे परात्पर प्रभु प्रकट होकर सदा क्रीडा़ करते हैं। हृदय व्रजभूमि है और कर्णिका प्रदेश माथुरमण्डल। इस देह में मूलाधार यम का और भगवान गणपति का धाम पृथ्वी तत्व है। स्वाधिष्ठान-द्वितीय चक्र वरुणदेव का– रस का, काम का-प्रद्युम्न का निवास है। मणिपुर-नाभिचक्र सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी का, हिरण्यगर्भ भगवान सूर्य का अग्नि तत्व धाम है और हृदय को वैकुण्ठ, गो लोक, अयोध्या आराधक अपनी निष्ठा के अनुसार समझता है।[1] अत: यह देह ही अयोध्या है। यहीं भगवान वासुदेव विराजते हैं।[2] यह हृदय वायु का गति का स्थान है। महाशक्ति का-सगुणसाकार-विग्रह साम्बशिव का- श्रीकामेश्वर एवं भगवती त्रिपुरा का स्थान है आकाश-तत्वात्मक कण्ठ-चक्र एवं लिंग-रूप महेश्वर का परम गुरु का धाम है आज्ञा चक्र[3]। यह मन का स्थान है। सहस्रार मन वाणी से परे ज्योतिर्मय अनिरुक्त ही है। यह जो व्यष्टि में है, समष्टि में भी वही है। अत: धरा में वह है, इसे समझने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए। एक ही हृदय स्थान बैकुण्ठ, अयोध्या, मथुरा? एक ही नित्य चिन्मय धाम के ये रूप हैं और भावनानुसार एक ही परात्पर तत्त्व इनके अधिष्ठाता रूप में भक्तों को प्राप्त होता है। अयोध्या, मथुरा, बैकुण्ठ- इन शब्दों का शब्दार्थ भी एक ही है, जो युद्ध के योग्य नहीं-अयोध्या, जिसे रौंदा न जा सके-मथुरा, जहाँ कुण्ठा नहीं -बैकुण्ठ। भगवान नारायण, मर्यादा पुरुषोत्तम तथा भगवान वासुदेव के आराधक भी अपने को वैष्णव ही कहते हैं। किन्तु धरा पर अयोध्या और मथुरा में पर्याप्त दूरी? मर्यादा और उन्मुक्त लीला में भी तो दूरी है। जब मर्यादा पुरुषोत्तम रूप में प्रभु पधारे, धरा पर नित्यधाम व्यक्त हुआ। लीला पुरुषोत्तम के समय व्यक्त नित्य धाम का रूप, प्रभाव उससे सहज भिन्न होना था। अत: धरा पर उसे स्थानन्तर में तो व्यक्त होना ही चाहिए था, किन्तु अयोध्या और मथुरा दोनों एक ही नित्य चिन्मय धाम के दो रुप हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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'अष्टाचक्रा नवद्बारा देवाना पूरयोध्या।'
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ऊर्ध्व प्राणमुत्रधत्यपान प्रत्यगस्यति। मध्ये वामनमासीन विश्वे देवा उपासते॥
- ↑ भ्रू-मध्य
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