भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
अवतार के लिए अनुरोध
सृष्टि कर्ता की सब अपनी ही सन्तान हैं। प्राय: राजस-तमोन्मुख राजस व्यक्ति ही उनकी आराधना करते हैं; क्योंकि सृजन जिनका व्यसन है, वे मोक्ष तो दे नही सकते। राजस व्यक्ति शक्ति सम्पन्न होकर उन्मद हो ही जायगा। राजस की महत्वाकांक्षा सीमातीत होती है, किन्तु सृष्टि कर्ता का वात्सल्य यह सब स्मरण नहीं करता। अपनी किसी सन्तान का उग्र तप देखकर वे सर्वथा दया-द्रवित हो उठते हैं। प्राय: असुर उनकी इस करुणा का लाभ पाते हैं। भगवान नारायण तो मोक्ष के अधिपति हैं ही, महाशक्ति, भगवान शिव, महागणाधिपति, भुवन भास्कर भी स्वरूपत: भवपाश के छेत्ता ही हैं। अत: परमतत्व की इन पांचों रूपों में आराधना होती है, किन्तु भगवान नारायण शुद्ध सत्त्व विग्रह हैं। किञ्चित भी रजस-तमस अन्त: करण में लेकर उनका सान्निध्य नहीं पाया जा सकता। शुद्धान्त: करण में वासनाएं रहती नहीं। अत: भगवान नारायण की या उनके किसी सात्त्विक रूप की आराधना करने वाले से सृष्टि में कोई व्यतिक्रम उपस्थित नहीं हो सकता। ऐसा आराधक वरदान भी माँगेगा तो भक्ति का। भगवान शिव अपने रुद्र विग्रह में, महाशक्ति, श्रीगणेश्वर और भगवान सूर्य किञ्चित रजस एंव तमस को कृतार्थ करते हैं। कहना यह चाहिए कि भगवान नारायण श्री विग्रह आनन्द घन है और शेष चार के श्री विग्रह सच्चिदानन्द घन हैं। माया के त्रिगुणात्मक क्षेत्र में आनन्द शुद्ध सत्व एवं सच्चिदानन्द तमस, रजस युक्त आनन्द के रूप में प्रतीत होता है। अत: शेष चारों ही में जहाँ अतिशय औदार्य-वत्सलता है, वहीं अतिशय भीषण एवं उग्रता भी है। तत्वत: उस परमात्मा के सब श्रीविग्रह परस्पर अभिन्न हैं और उनमें सामर्थ्य एवं करुणा का कोई तारतम्य नहीं है। अत: भगवान नारायण रजस एवं तमस की आंशिक स्वीकृति युक्त अवतार नहीं लेंगे, ऐसा कोई नियम नहीं है। उनके भी नृसिंह- वाराह जैसे उग्रावतार हैं और राजस, तामस प्रकृति के आराधक-सकाम साधक इन स्वरूपों की आराधना करते ही हैं। आराधक की सहज रुचि अपने शील-स्वभाव के अनुरूप जो भगवद विग्रह हो उसमें होती है। सकाम आराधक इस सहज रुचि के साथ यह भी देखता है कि उसका अभीष्ट शीघ्र कहाँ पूरा हो सकता है। यह निर्णय वह अपनी रुचि के अनुसार करता है अथवा उसके उपदेष्टा गुरु अपनी रुचि एवं निष्ठा के अनुसार कर देते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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