भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
श्रीरणछोड़राय
दोनों भाइयों ने देखा, शिखर का एक भाग नीचे सागर की ओर है। वे समुद्र एवं पर्वत के मध्य की संकरी भूमि में अग्नि ज्वाला के कारण रुके रह नहीं सकते थे। दोनों भाई शिखर के उस भाग से सागर के अगाध जल में कूद पड़े। तैरते हुए दूर जाकर भूमि पर आए। जरासन्ध पूरे तीन दिन तक पर्वत को घेरे पड़ा रहा। पर्वत पर वृक्ष जल रहे थे। धुएं के अम्बार में तब भी पर्वत ढका था। उसके शिखर पर कोई भाग हरा-भरा भी है, यह देख पाना किसी के लिए भी पर्वत के नीचे से संभव नहीं था। पर्वत का एक अत्यंत छोटा सा भाग समुद्र से सटा है। इस और किसी का ध्यान नहीं गया। इतने ऊंचे पर्वत से कोई कूद भी सकता है, यह बात कल्पना से बाहर थी। वे दोनों भाई जल मरे। चौथे दिन प्रात: जरासन्ध ने लौटने का निश्चय किया। उसके सैनिकों ने रात -दिन सावधान रहकर पर्वत को चारों ओर से घेरा बनाए रखा था। पर्वत से तो एक क्षुद्र प्राणी भी उतर नहीं सका। पतझड़ के पत्तों की राशि थी पर्वत पर। कोई भी प्राणी भाग नहीं सका। ऐसी अवस्था में वे दोनों भाई कैसे बच सकते थे। जरासन्ध और उसके मित्र बहुत प्रसन्न हुए। कालयवन की सेना के साथ आया प्रचुर धन भी उनके हाथ लग ही गया था। एक महोत्सव उन्होंने वहीं मना लिया। मगध लौट कर जरासन्ध ने विजयोत्सव मनाया। ब्राह्मणों को भरपूर दक्षिणा दी। साथ नरेशों तथा सभी सैनिकों को, सेवकों को उसने खुल कर सम्मानित किया, पुरस्कृत किया। द्वारिका में महाराज उग्रसेन, श्री वसुदेव जी तथा सभी नागरिक रात्रि में सोते समय ही पहुँचा दिए गए थे, किंतु किसी को नहीं लगा कि वे रथ में बैठ कर नहीं आए हैं। उन्हें लगता था कि वे रथों में बैठ कर सपरिवार, सब सामग्री, वाहन, सेवक लेकर स्वयं ही चलकर आए हैं और यह नगर उनका बहुत परिचित है। यहाँ तो वे सदा से रहते रहे हैं। उन्हें गृह, गली, पथ अपरिचित नहीं लगते थे। भगवान वासुदेव कहाँ हैं? कहाँ है श्री बलराम? सबके मन में यही प्रश्न था। सब परस्पर यही पूछते थे व्याकुल थे। भगवान वासुदेव की जय ! सहसा एक दिन नगर से बाहर दोनों भाई आते दीख पड़े। जिसने देखा पुकार उठा। लोग दौड़ पड़े उत्साह से। श्रीरणछोड़राय की जय! बलराम जी ने हंसते हुए जय ध्वनि की छोटे भाई की ओर देख कर। उनकी यह जय ध्वनि- श्रीकृष्ण रणछोड़राय हो गए तबसे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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