भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
मुचुकुन्द
मुचुकुन्द ने भक्ति और मोक्ष दोनों मांगा। दोनों प्राप्त हुए उन्हें। अब श्रीकृष्ण गुफा से बाहर आए। मुचुकुन्द ने बाहर आकर उन पुरुषोत्तम की परिक्रमा की। उनको प्रणिपात किया। उनसे अनुमति ली। श्री कृष्ण चंद्र मथुरा की ओर लौटे। वे जब तक दृष्टि पथ में रहे, एकटक मुचुकुन्द देखते रहे उसी ओर। जब श्रीकृष्ण दृष्टि पथ से दूर चले गए, मुचुकुन्द ने पुन: भूमि में लेट कर उन्हें प्रणिपात किया। प्रभु ने कहा है इच्छानुसार पृथ्वी में विचरण करो। मुचुकुन्द ने उठ कर इधर – उधर देखा – ये उनके टखनों तक पहुँचते मनुष्य और पशु, ये घुटनों से कुछ ऊपर तक आते वृक्ष – शशक, मूषक जैसे हो गए हैं धरा पर अब अश्व, गज भी, वट, अश्वत्थ भी क्षुद्र जैसे रहे गए हैं। इस मन्वन्तर की प्रथम चतुर्युगी के सतयुग में उत्पन्न उन महाकाय पुरुष को पृथ्वी की वर्तमान अवस्था देख कर बहुत निराशा हुई। वे कहाँ जाएं ? कहाँ विचरण करें ? उनको छाया दे सके बैठने पर ऐसा भी तो कोई वृक्ष कहीं नहीं दीखता। वे यदि नगर जनपद की ओर गए, ये छुद्रकाय मनुष्य और पशु भय से ही मर जा सकते हैं। इनमें आतंक से भगदड़ मचेगी। वे कहाँ तक इन्हें अपने पदों से कुचल जाने से बचाते चल पाएंगे। ऐसे संसार में ऐसे क्षीणकाय जीवों के मध्य विचरण करने में किसी को क्या सुख मिलेगा ? उनको कोई सुविधा कहाँ मिल सकती है ? कोई मनुष्य चींटियों के समुदाय में उनको बचाते कैसे चलें ? कैसे रहे वहां? श्री कृष्ण चंद्र परम पुरुष हैं। मुचुकुन्द से पहले भी समकालीन महाराज ककुद्मी को देखा ता उन्होंने, किंतु मुचुकुन्द ने कहाँ इतने अल्पकाय प्राणियों को देखा था। वे खिन्न हो गए। महाराज ककुद्मी के समान वे भी तप करने का निश्चय करके आकाश मार्ग से ही गन्धमादन पर्वत पर चले गए। उनमें श्रद्धा थी, वे धीर थे और श्रीकृष्ण प्रेम उन्हें मिल चुका था। वे तप करें यहीं उनके लिए स्वाभाविक था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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