भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
मुचुकुन्द
तब वैवस्वत मन्वन्तर की अट्ठाइसवीं चतुर्युगी का द्वापरांत आ गया ? मुचुकुन्द को स्मरण आया कि उन्हें पहले बतलाया गया था कि परात्पर परम पुरुष अट्ठाइवीं चतुर्युगी के द्वापरांत धरा पर अवतीर्ण होंगे। मुचुकुन्द ने तो उनकी ही उपासना की है। आज वे भक्त वत्सल पधारे – यहाँ दुर्गम वन की गुहा में उन पर अनुग्रह करके पधारे हैं। स्वामी ! आपकी माया से मोहित होकर प्राणी आपका भजन नहीं करता। सुख के लिए वह अनर्थ रूप दुख ही उत्पन्न करने वाले गृह में स्त्री – पुरुषों में आसक्त हो जाता है। माया ठग लेती है उसे। यह मानव शरीर अत्यंत दुर्लभ है और यह सर्वेन्द्रिय शक्ति संपन्न मिलना और भी दुर्लभ है। बिना प्रयत्न इसे पाकर भी दुर्बुद्धि मनुष्य आपके चरणारविन्द का भजन तो करता नहीं, अंधे पशु के समान घर रूपी कुएं में गिर पड़ता है। मुचुकुन्द स्तुति करने लगे थे। मेरे नाथ ! राज्य, लक्ष्मी के मद से मत्त होने के कारण मेरा भी यह समय व्यर्थ ही व्यतीत हुआ है। इस मरणधर्मा देह को ही मैंने आत्मा माना, पुत्र – स्त्री, कोश – पृथ्वी आदि में आसक्त होकर इनकी दुहन्त चिंता में लगा रहा। अत: प्रभो ! आपकी चरण सेवा के अतिरिक्त और कुछ मैं नहीं मांगना चाहता। आप मोक्षदाता परमोदार स्वामी को पाकर कौन अपने लिए बंधन रूप वरदान मांगेगा। मैंने समस्त कामना छोड़ दी। ये सात्त्विक, राजस, तामस गुणों में बांधती ही हैं। निरञ्जन, निर्गुण, अद्वय, ज्ञान स्वरूप आप परम पुरुष की मैं शरण हूँ । भक्त वत्सल ! इस संसार के क्लेश में भव महादावाग्नि में दीर्घकाल से में संतप्त हो रहा हूँ। ये काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर निरंतर अतृप्त रहते हैं और कहीं शांति से मुझे नहीं रहने देते। किसी प्रकार आपके पाद - पद्मों में पहुँच सका हूँ। शरणागत वत्सल ! आप परमात्मा, अभय – अमृत – अशोक हैं, मेरी रक्षा करें स्वामी! |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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