भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
कालयवन
यह मथुरा ही है? कहाँ गए इस नगर के लोग? इतनी निस्तब्धता क्यों है यहां? म्लेच्छ सैनिक एक–दूसरे से पूछने लगे। उन्हें लगता था कि उनके आगमन के आतंक से नगर छोड़ कर सब भाग गए हैं, किंतु तब नगर द्वार भीतर से क्यों बंद हैं? भीतर कौन है? एकाकी रहने का साहस करने वाले वे लोग कैसे हैं? कालयवन नगर–द्वार तोड़ देने का आदेश देने ही वाला था। उसे मगधराज अथवा उनके सहायकों की आने की अपेक्षा नहीं थी। उसने मार्ग में किसी को समाचार नहीं दिया था। वह किसी की प्रतीक्षा तो तब करे जब दुर्बल हो। सहसा एक द्वार खुला और उससे एक पुरुष निकले। कालयवन उन्हें देखते ही चौंक गया। उसने देवर्षि नारद से पूछा था– वासुदेव को वह कैसे पहचानेगा, यदि वे एकाकी कहीं मिल जाएं? उन्हें पहचानना क्या कठिन है। वैसे दूसरा पुरुष त्रिभुवन में नहीं है। देवर्षि ने कहा था– तुम ठीक जिज्ञासा कर रहे हो। वे तुम्हें एकाकी मिलें, संभावना ऐसी ही है। अतसी कुसुम नीलवपु, दीर्घ चार भुजाएं, पद्मदलायत लोचन, नित्य प्रफुल्ल मुखश्री, भुवन–सुंदर रूप, पीतवसन, कौस्तुभ कण्ठ, वनमाली, अतिशय कोमल अरुण–चरण, कालयवन खुले द्वार से निकलते पुरुष को ऊपर से नीचे तक देख गया। उसे निश्चय हो गया–यही वासुदेव हैं। दूसरा व्यक्ति ऐसा त्रिभुवन में नहीं हो सकता। देवर्षि के बतलाए सब लक्षण हैं। इनमें शत्रु को इतनी विशाल वाहिनी नगर घेरे खड़ी है और निश्चिंत, मंद–मंद मुस्कराते यह पुरुष एकाकी द्वार से निकल आया है जैसे भय इसे स्पर्श ही नहीं करता। द्वार तो खुला और फिर बंद हो गया। इसका अर्थ का कि भीतर और भी कोई–और भी लोग हैं, किंतु ये जो पुरुष निकले हैं, ये तो नंगे पैर, एकाकी, पैदल हैं। कालयवन के सामने से ही सेना के मध्य से निर्भीक चले जा रहे हैं। सैनिक तो इन्हें देख कर मंत्रमुग्ध खड़े रह गए हैं। इन्हें रोकना भी है, जैसे किसी को स्मरण नहीं। ये निरायुध हैं, पैदल हैं और इनसे ही मुझे युद्ध करना है। कालयवन ने निर्णय कर लिया–मैं निरायुध पैदल ही इनसे युद्ध करूंगा। मेरे लौटने तक सेना केवल नगर को घेरे रहेगी। कोई बाहर निकले तो पकड़ लो। युद्ध करे तो मार डालो। अन्यथा मेरे लौटने की प्रतीक्षा करो। अपने सेनापति को आदेश दिया उसने। शस्त्र रथ में उतारकर रख दिए और रथ से कूदा। लो, अब तक सामान्य गति से चलते वासुदेव तो भाग खड़े हुए। उनके पीछे दौड़ता कालयवन चिल्लाया–यदुवंश में उत्पन्न होकर भाग रहे हो? यह उचित नहीं है। ठहरो! कायरों की भाँति भागो मत! मैं तुम्हें छोड़ने वाला नहीं हूँ। श्रीकृष्ण भागे जा रहे हैं। वे पीछे मुड़ कर भी नहीं देखते। बड़ी तीव्र वेग से दौड़ रहे हैं वे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज