भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
द्वारिकापुरी
देवराज स्वयं ऐरावत पर बैठे आ गए और अनुनय कर गए–देव शिल्पी इंद्र को सेवा का सौभाग्य भूलें नहीं। यहाँ सभा गृह आपको नहीं बनाना है। सुधर्मा सभा अवतीर्ण हो सके, ऐसा स्थल प्रशस्त कर देना और उच्चै:श्रवा तथा ऐरावत के कुलों में उत्पन्न अश्व तथा गज रह सकें, ऐसी अश्वशाला तथा गजशाला बनावें। बारह योजन विस्तीर्ण, सम चतुष्कोण नगर का विश्वकर्मा ने मानचित्र बनाया। चार प्रमुख राजपथ, मध्य में राजकीय सदन तथा भगवान वासुदेव एवं उनके अग्रज, परिवार के भवनों की श्रेणियां। विस्तृत चौराहे। राजपथ जैसी वीथियां। नगर के चारों ओर उद्यान, उपवन तथा नित्योगयोगी काष्ठ, पल्लवादि के वृक्षों से युक्त वन। सरोवर, वापियां, प्रशस्त विहार शाद्वल स्थल। भवन–प्रांगण, भवन शिखर, स्तम्भ, गवाक्ष आदि तो देव शिल्पी को बनाने ही थे। अपनी संपूर्ण कला प्रदर्शित की उन्होंने इसके निर्माण में। कहाँ किस रंग का, किस प्रकृति का कौन सा पाषाण, धातु, रत्न या मणि शोभित होगा–देव शिल्पी से अधिक कौन जानेगा। सभी ऋतिओं में, सब अवस्था के, सब प्रकार के स्वभाव के सब प्रकार के व्यवसाय करने वालों के उपयुक्त भवन बनाए उन्होंने और भरपूर सुसज्ज, सुंदर बनाए। केवल भवन ही नहीं, देवालय, चत्वर, सभागृह। पशुओं, पक्षियों के भी आवास–निवास, सुविधा की व्यवस्था करनी थी। वह भी की गई। नगर की, भवनों की स्वच्छता सरलता से होती रहे, पर्याप्त प्रकाश वायु सर्वत्र मिलता रहे, वर्षा एवं आंधी से कष्ट न हो–यह सब सुविधा रखी। जल सर्वत्र सुलभ रखा। कृत्रिम निर्झर, शैल, सहस्रधारा (फुहारे), झील और इनके कनारे, विचरण के लिए नैसर्गिक प्रतीत हों, ऐसी वीथियां बनाईं। उपवन, उद्यान, वन एवं जलाशयों में पुष्प, लता, तरु–जहाँ जो भी श्रेष्ठ थी त्रिभुवन में, उसे लाकर दिया। प्रत्येक घर में पुष्पोद्यान, तुलसी, विल्वपत्र सुलभ। पक्षी, भ्रमर, पशु आदि भी विश्वकर्मा ने लाकर बसा दिए। किसी भी विशाल संपन्नतम नगर में जो कुछ आवश्यक होता है, उत्कृष्टतम रूप में द्वारिका में उपलब्ध किया उन्होंने। नगर के बाहर वन एवं उपवनों में जलाशयों के समीप तपस्वियों, ब्राह्मणों के उपयुक्त उटज बनाए। यहाँ भवन नहीं बनाए जा सके। इनके समीप फलों के वृक्ष, कुश, पुष्प, तरु, लता रखने थे। मृगों के यूथ इनके समीप लाकर रखे। विश्वकर्मा और उनके सेवकों का निर्माण कोई मानव कलाकार के समान हाथों का श्रम तो है नहीं। उन्हें तो मन से संकल्प करना था। मन में जो रूप स्पष्ट हुआ, बाहर व्यक्त होता चला गया। विश्वकर्मा ने एक दिन रात्रि में ही द्वारिका का निर्माण पूरा कर दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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