भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
श्री बलराम विवाह
ज्योतिष्मती के लिए काल का प्रश्न नहीं था। दूसरा जन्म लेने में भी आपत्ति नहीं थी। वह अनन्त काल तक प्रतीक्षा करेगी–आवश्यक हो तो घोर तप करती रहेगी। उसके आराध्य यदि लक्ष–लक्ष जन्म लेने पर प्रसन्न हों तो वह बार–बार मरेगी और जन्म लेगी, किंतु वे प्रसन्न हों। वे इस किंकरी को स्वीकार करें। भगवान ब्रह्मा उसे इसी देह से ब्रह्मलोक चलने को कह रहे थे। वह प्रसन्न हो गई। ब्रह्मलोक चली गई। इस वैवस्वत मन्वन्तर की प्रथम चतुर्युगी के सतयुग में वैवस्वत मनु के वंश में महाराज शर्याति हुए। उनके तीन पुत्र थे–उत्तानबर्हि, आनर्त और भूरिषेम। इनमें से आनर्त के पुत्र हुए रेवत। इन महाराज रेवत ने ही समुद्र के मध्य में पहले कुशस्थली नगर बसाया। इनके सौ पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र थे ककुदमी। नि:संतान ककुदमी ने जब संतान प्राप्ति के लिए यज्ञ प्रारंभ किया तो उनके यज्ञकुण्ड से ब्रह्माजी के आदेश से ज्योतिष्मती प्रकट हो गई। अपनी इस अयोनिजा कन्या का नाम ककुदमी ने रेवती रखा। दिव्य देहा अयोनिजा कन्या। किस से विवाह करें महाराज ककुदमी अपनी इस पुत्री का? कोई उपयुक्त पात्र ध्यान में ही नहीं आता था। रेवती ने ही कहा–पिता जी! आप ब्रह्मलोक जाने में समर्थ हैं। सृष्टि तो उन लोकस्रष्टा ने ही बनाई है। वे ही अपनी सृष्टि के समस्त प्राणियों के संबंधों का भी विधान करते हैं। आप उनसे क्यों नहीं पूछ लेते। बात ठीक थी अन्तत: ब्रह्मा जी ने रेवती के लिए कोई पति भी तो बनाया होगा। महाराज ककुदमी अपनी पुत्री को लेकर ब्रह्मलोक चले गए। संयोग की बात थी, जब ये ब्रह्मलोक पहुँचे, ब्रह्मा जी की सभा में संगीत गोष्ठी चल रही थी गन्धर्वों की। भगवान ब्रह्मा जी गायन सुन रहे थे। थोड़े क्षण महाराज को प्रतीक्षा करनी पड़ी। चलता हुआ संगीत समाप्त होते ही ब्रह्मा जी ने पुत्री के साथ आए हाथ जोड़े खड़े महाराज ककुदमी की ओर देखा। महाराज बोले–इस यज्ञकुण्ड समुद्भवा पुत्री के योग्य वर ही मुझे पृथ्वी में नहीं दीखता। आप कृपा करके इसके उपयुक्त वर का निर्देश कर दें। ब्रह्माजी खुल कर हंसे। बोले–राजन! काल एक सापेक्ष तत्त्व है। आपकी धरा का काल बहुत अधिक शीघ्रगामी है ब्रह्मलोक के काल की अपेक्षा। ब्रह्मलोक में आप कुछ क्षण खड़े रहे हैं, किंतु पृथ्वी पर इतनी देर में चतुर्युगी बीत चुकी। आपने जिन–जिनसे अपनी कन्या के विवाह की बात सोची थी, पृथ्वी पर तो अब उनके वंशजों के गोत्र का भी पता नहीं है। महाराज ककुदमी आश्चर्य से देखते रह गए, किंतु भगवान ब्रह्मा ज्योतिष्मती को न पहचानते हों या उसे दिया अपना वरदान भूल गए हों, यह बात तो थी नहीं। उन्होंने कहा-राजन! आप अब शीघ्रता करें। आप पृथ्वी पर पहुँचेंगे–तब तक वहाँ अट्ठाइसवीं चतुर्युगी का द्वापरान्त प्रारंभ हो चुका होगा। आप सीधे मधुपुरी चले जाएं। वहाँ एक कुण्डलधारी, हल मुशलायुध, तप्तकाञ्चनवर्ण, नीलवसन भगवान अनन्त मनुष्य रूप में अवतीर्ण मिलेंगे। आप उन्हें अपनी यह कन्या दे दें। उन सर्वसमर्थ स्वेच्छागृहीत आकार पर आप ध्यान मत देना। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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