भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
भूभार क्या ?
जब देव शक्ति भी आसुर मानवों अथवा असुरों की बढ़ी सेना का भार दूर नहीं कर पाती, सृष्टि की मर्यादा की सुरक्षा का जिन पर दायित्व है वे श्रीहरि पधारते हैं और तब वे स्वयं यह भार दूर करने की व्यवस्था करते हैं। सेना का भार तो युद्ध-सैनिकोंं और उनके उन्मद प्रभुओं के विनाश के बिना दूर नहीं हो सकता। कोई प्रवल सैन्य शक्ति सम्पन्न शासक अपनी सैन्य शक्ति का विसर्जन स्वेच्छापूर्वक कभी नहीं स्वीकार करता, भले उसका कोई प्रतिस्पर्धी न रह गया हो और उसके लिए आतंक- आशंका का कोई कारण न रहा हो। वह अपने को बिना बनाये औरों का स्वयम्भू संरक्षक बना लेता है और अपनी सैन्यशक्ति बनाये रखने अथवा बढ़ाते जाने के कल्पित कारण गढ़ता जाता है। सर्वेश्वर के लिए अपना-पराया कभी कोई कैसे हो सकता है। उनको भू-भार दूर करना था। यादव-वाहिनी को उन्होंने निमित्त बनाया और अन्त में पारस्परिक संघर्ष के द्वारा उस अजेय वाहिनी का भी विसर्जन कर दिया। भूदेवी जड़ तो नहीं है। सच तो यह है कि जड़ता भ्रम है। सम्पूर्ण सृष्टि एक सच्चिादानन्द परमात्मा में ओत-प्रोत है। परमात्मा ही सृष्टि के रूप में प्रतीत हो रहा है। इसमें जड़ तत्व केवल भ्रम से प्रतीत होते हैं। उस सच्चिादानन्द की प्रकृति-स्वभाव है कि उसकी सत्ता धनीभूत होकर तमस-तमोगुण प्रतीत होने लगती है और उसमें जड़ता का भ्रम होता है। हमारा यह देह जड़ है, ऐसा लगता है; किन्तु देह में क्या जड़ है? सम्पूर्ण देह क्या अरबों छुद्र कणप्राय जीवों का समुदाय नहीं है? प्रत्येक तत्व जिन्हें जड़वादी जड़ मानते हैं, केवल शरीर हैं। पृथ्वी, जल, वायु आदि के दृश्य– पञ्चीकृत रूप उनके शरीर हैं और उनके अधिदेवता उन शरीरों में चेतन हैं- ठीक वैसे ही जैसे अपने शरीर में हम अपने को चेतन जानते हैं। भूदेवी चेतन हैं, अत: उनमें अनुभूति है और अनुभूति है तो उनके शरीर-धरा पर रहने वाले प्राणी जो कुछ करते हैं,उसमें उनको प्रिय-अप्रिय का अनुभव होता है। सभी प्राणी भगवती धरा की सन्तान ही तो हैं? हां, किन्तु जब माता का एक पुत्र अपने दूसरे भाइयों को उत्पीड़ित शोषित, आतंकित करने लगता है तो उसका अन्याय-अत्याचार माता के मन का भार बन जाता है और माता किसी भी प्रकार उसके अत्याचार से-दूसरा मार्ग न हो तो उससे अपने शेष पुत्रों की रक्षा को व्याकुल हो उठती है।[1] परोत्पीड़क, अधर्म-परायण असुर पृथ्वी के भार हैं। धर्म या अधर्म घट-बढ़ नहीं सकते क्योंकि ये दोनों ही विराट स्वरूप श्रीहरि के अंग ही हैं। धर्म यदि उनका हृदय है तो अधर्म उनका पृष्ठ देश है। होता यही है कि इनकी सघनता घटती-बढ़ती रहती है। सत्व, रज और तम ये त्रिगुण प्रकृति में घटते-बढते नहीं। इनकी मात्रा सदा समान रहती है; किन्तु प्रलय के समय ये साम्यावस्था में रहते हैं। सृष्टि के समय इनका तारतम्य बदलता रहता है। कहीं एक प्रबल होता है कभी ओर कभी कहीं दूसरा। पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म सब त्रिगुणात्मक हैं, अत: इनकी मात्रा घट या बढ़ कैसे सकती है? केवल इनका तारतम्य परिवर्तित होता रहता है। धरा पर बढ़ने का अर्थ है कहीं किसी विशिष्ट वर्ग में ही केन्द्रित रहने के स्थान में तमोगुण एवं तमोन्मुख अधिकांश मानवों में व्याप्त हो गया है। इससे सत्वगुण की व्यापकता घट गयी है और वह थोड़े से विशिष्ट व्यक्तियों में अधिक सघन हो गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही। जस मोही गरुअ एक परद्रोही॥ (श्रीरामचरितमानस 1.183।5)
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