भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
चक्र–मौशल युद्ध
पर्वत पर सिंह, व्याघ्र, रीछ, सर्प आदि थे। वे सब पहले तो शिखर की ओर भागे, किंतु जब लपटें ऊपर तक पहुँचने लगीं, वे झुलसते, चिल्लाते नीचे दौड़ते आने लगे। सेना पर टूट पड़े वे क्रोधोन्मत्त। सैनिक उनको मार देने में लग गए, किंतु सेना के एक बड़े भाग का उन्होंने विनाश कर दिया। पूरी सेना आधे कोस तक पीछे हट गई। आर्य! अब नीचे कूदें। यहाँ रहना अब शक्य नहीं और जरासन्ध जो यह भूभार भूत सेना समेट लाया है, उसे लौटने तो नहीं देना है। अग्रज से कहकर श्रीकृष्ण चंद्र ने पर्वत को चरणों से दबाया। इससे पर्वत का तृतीय भाग धरा में धंस गया। भूमि से तीव्र जल धाराएं फूट निकलीं। पूरा पर्वत उन धाराओं से भीगने लगा। अग्नि शांत हो गई। श्रीकृष्ण–बलराम कूद कर नीचे आ गए। अव घोर संग्राम प्रारम्भ हो गया, किंतु यहाँ श्री बलराम के करों में उनका हल और प्रज्वलित मुशल था। श्रीकृष्ण ने अपना शत सहस्र प्रलय सूर्यों के समान ज्वाल माला युक्त, चक्र छोड़ दिया था। उस चक्र की ज्वाला और मुशल के प्रहार में जरासन्ध की सेना कुछ घड़ी भी नहीं टिकी। पूरी सेना छिन्न भिन्न अंग–ढेरियां लग गईं गज, अश्व और मनुष्यों के शवों की। इस बार कश्मीरराज दरद श्री बलराम के मुशल की बलि हो गया। शेष राजा भाग गए। जरासन्ध को मारने के लिए इन अनन्त ने मुशल उठाया। वे क्रोधोन्मत्त हो उठे थे–इस पापिष्ट को इस बार समाप्त ही कर देना है–हुंकार की उन्होंने। 'देव! आपका तेज असह्य है। आपका पराक्रम अकल्पनीय है।' आपका शस्त्र अमोघ है। सहसा आकाशवाणी ने स्तुति के स्वर में कहा– किंतु मर्यादा की रक्षा आप नहीं करेंगे तो कौन करेगा? यह वृहद्रथ का पुत्र आपके लिए अवध्य है। श्री संकर्षण ने हाथ रोक लिया। उनका मुख कुछ शांत हुआ। जरासन्ध यह तनिक सा सुयोग मिलते ही भागा। भाग कर प्राण बचाए उसने। अब उसने–दूसरे राजाओं ने भी समझ लिया कि वसुदेव के ये दोनों पुत्र उनके लिए दुर्जय हैं। जरासन्ध लौटा। उसके साथ नरेश भी लौटे, किंतु इस बार वे अपना उत्साह, नवीन आक्रमण की चर्चा सब भूल गए थे। यह चक्र–मौशल युद्ध यह दोनों भाइयों के प्रलयंकर रूप। सब मौन थे। सबके हृदय में आतंक बैठ गया था। अभी वे इस स्थिति में नहीं थे कि क्या करना है आगे, इसकी चर्चा भी कर सकें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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