भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
चक्र–मौशल युद्ध
'यह कामधेनु है। सब पर पक्षियों के लिए दुर्धर्ष। इसको तो मैं तुम दोनों भाइयों के किञ्चित सत्कार के लिए यहाँ ले आया हूँ।' परशुराम जी उठ खड़े हुए– इसका अमृत पय पी लो। इससे तुम दोनों भाइयों को दीर्घकाल तक क्षुधा, तृषा, श्रान्ति कुछ नहीं सताएगी। पर्णपुटकों में दुह कर अपनी होमधेनु का दूध दिया परशुराम जी ने। दोनों भाइयों ने उसे आदर पूर्वक पान किया। परशुराम जी ने गौ से कहा– देवि! अब आप आश्रम पधारो। गाय चली गई। तीनों चल पड़े। मार्ग में दो रात्रि व्यतीत करके गोमन्तक पर्वत के पाद प्रांत तक पहुँचाकर परशुराम जी ने विदा ली। दोनों भाई पर्वत के उच्च शिखर पर चढ़ गए। अद्भुत पर्वत–अद्भुत मार्ग दर्शक और उस शिखर पर तो अद्भुत संयोग जुड़ते ही चले गए। मधु, कान्ति, शोभा की अधिष्ठात्र देवियाँ प्रकट हुईं। उन्होंने तनिक अकेले घूमते बलराम जी का वरण किया। शोभा की देवी ने उन्हें आदिपद्म या पद्माक्ष नामक कुण्डल भेंट किया। श्री संकर्षण उसे अपने दक्षिण कर्ण में धारण करते हैं। भगवान विष्णु क्षीर सागर में योगनिद्रा में थे तब उनका किरीट एक दैत्य चुरा ले गया। गरुड़ ने पीछा ने किया उसका। समुद्र में दैत्यों से युद्ध करके विनतानंदन गरुड़ उस ज्योतिर्मय किरीट को दैत्यों से छीन कर चोंच में लिए जा रहे थे। गोमन्तक पर्वत पर पहुँचे तो नीचे अरविन्दाक्ष, चतुर्भुज मेघश्याम अपने स्वामी को पर्वत शिखर पर घूमते पहचान लिया गरुड़ ने। नीचे आए और उड़ते हुए ही वह किरीट धीरे से श्रीकृष्ण चंद्र के मस्तक पर धर दिया। वहाँ से आज्ञा लेकर चले गए। जरासन्ध ने सेना लेकर प्रस्थान किया ही था कि उसने चर ने संवाद दिया– वसुदेव के दोनों पुत्र रथ में बैठ कर दक्षिण जाते देखे गए हैं। उनका पता लगाओ। मगधराज ने कई चर भेज दिए तीव्रगति अश्वों पर। पूरी सेना लेकर वह उसी ओर बढ़ चला। उसके चर निपुण थे। उन्होंने पता लगा लिया। जरासन्ध को ससैन्य लाकर गोमन्तक पर्वत के नीचे खड़ा किया उन्होंने। श्रीकृष्ण ने दूर से देखकर अग्रज से कहा– आर्य! जरासन्ध की सेना के रथों की ध्वजाएं दीखने लगी हैं। वह आ गया यहाँ। जरासन्ध ने पर्वत को घेर कर विभिन्न दिशाओं से विभिन्न नरेशों को ऊपर चढ़ने को आदेश देना प्रारम्भ किया तो शिशुपाल बोला–यह पर्वत दुर्गम है। इस पर चढ़ने का प्रयत्न व्यर्थ है। दोनों भाई ऊपर है। वहाँ से ये भारी चट्टान ढ़ेल देंगे और चढ़ने वाले उनसे पिस जाएंगे। तब? जरासन्ध ने अत्यंत प्रशंसा के भाव से शिशुपाल की ओर देखा। उसका यह दत्तक पुत्र योग्य महासेनापति है। भारी भूल को समय पर सुधारा इसने। चारों ओर घास–फूस, काष्ठ से पर्वत को घेर कर आग लगा दी जाए, शिशुपाल ने कहा–अग्नि से बचने को दोनों नीचे आवेंगे तो हम उन्हें घेर कर मार डालेंगे। समस्त सेना उस उद्योग में लग गई। तेईस अक्षौहिणी सेना–पर्वत का पर्याप्त ऊँचाई तक का भाग घास और सूखी लकड़ियों से ढक गया। उसमें एक साथ चारों ओर आग लगा दी गई। सब लोग पर्वत को घेर कर सावधान खड़े रहे। दोनों भाई किसी ओर से उतरे, उन्हें घेर लो। मगधराज ने आज्ञा दी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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