भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
चक्र–मौशल युद्ध
श्रीकृष्ण! मैं तुम दोनों भाइयों को त्रेता में ही पहिचान गया था। तुम सर्वेश्वरेश्वर मुझे ठगो मत! भगवान परशुराम उच्च स्वर से हंसे– मैं जान गया था कि आज यहाँ तुम दोनों भाई पधारोगे तुम्हें मेरी सम्मति चाहिए। यह सम्मति देने ही में शिष्यों को छोड़ कर यहाँ एकाकी आया हूँ। देखो वासुदेव! तुम्हारे कर्म मुझे विदित हैं। मैं तुम्हारे स्वरूप को जानता हूँ। त्रिभुवन में तुमसे कुछ अविदित नहीं है, किंतु तुम मुझे गौरव देने आए हो तो परशुराम यह सेवा करेगा। उन भृगुश्रेष्ठ ने कहा-'गोविंद! यह करवीरपुर तुम्हारे पूर्वजों ने बसाया है, किंतु इस समय यहाँ का अधिपति शृगाल वासुदेव है। वह अत्यंत क्रोध में भरा रहता है। उसने तुम्हारे कुल में उत्पन्न समस्त उत्तराधिकारी क्षत्रियों को मार डाला है। वह तो अपने पुत्रों से भी निर्दय व्यवहार करता है। अत: तुम्हारा यहाँ रुकना मुझे ठीक नहीं लगता।' करवीरपुर में प्रवेश का प्रश्न ही समाप्त हो गया। परशुराम जी ने कहा– 'हम तीनों इस नदी को भुजाओं से तैर कर पार करें और इस देश की सीमा पर स्थित दुर्गम पर्वत पर चलें। आज वहीं रहेंगे। वह सह्य पर्वत की उपशाखा है। उस यज्ञगिरि पर आजकल चोर डाकुओं ने अपना अड्डा बना लिया है। वहाँ रात्रि व्यतीत करके हम प्रात: खट्वांग नदी पार करेंगे। वह कसौटी के पत्थरों से शोभित है। उस पर तापसारण्य में प्रपात है। वहाँ तपस्वियों को दर्शन देकर उनका तप सफल कर दो। मैंने उन्हें वचन दिया है कि तुमको उनके समीप ले आऊँगा। वहाँ से हम क्रोञ्चपुर चलेंगे। वहाँ तुम्हारे कुल में ही उत्पन्न धर्मात्मा नरेश महाकवि रहते हैं, किंतु इस समय उनसे मिलना उचित नहीं है। वे मगधराज की शत्रुता सम्हाल पाने योग्य नहीं हैं। परशुराम जी स्वत: कहते गए–हम संध्या होते होते वहाँ से चल कर आनदुह तीर्थ पहुँच जाएंगे। वहीं रात्रि में रहेंगे। वहाँ से सह्य पर्वत की एक गुफा का मार्ग गोमन्तक पर्वत तक जाता है। उस मार्ग से जाकर गोमन्तक पर्वत के अत्युच्च अगम्य पर्वत पर तुम दोनों भाई चढ़ जाना। वहीं रहो। समुद्र का वहाँ से दर्शन करते विचरण करो। वहाँ उस पर्वत दुर्ग के आश्रय से जरासन्ध को जीत लोगे। जरासन्ध तुमको वहाँ जान कर विवश होगा पर्वत युद्ध के लिए। तुम्हें वहाँ दिव्यायुध मिलेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सौ गज
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