भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
युद्ध ! युद्ध ! युद्ध !
आप जैसा महामनस्वी ऐसी बात कहे, यह उचित नहीं है। राजाओं ने नम्रता से कहा–जय पराजय तो सबके साथ लगी है। ऐसा कौन है जो कभी पराजित न हुआ हो। पराजित हो जाना तो कोई पाप नहीं है और पराजय से साहस खो देने वाले कापुरुष आप नहीं। अब भी, इस समय भी आप हमारे संरक्षक हैं। महाराजाधिराज हैं हमारे। यह तो अपने किसी पूर्व कर्म का फल या कि अल्प प्राण यादवों से आपकी पराजय हुई, किंतु वीर के लिए पराजय अधिक उद्योग की प्रेरणा देने वाली होती है। आप मुझे त्याग रहे हैं? शिशुपाल समीप आ गया। उसने हाथ पकड़ा जरासन्ध का–ये सब नरेश आपकी प्रतीक्षा में थे। सबने आज से ही पुन: सैन्य संग्रह का संकल्प लिया है। हम सब तब तक चुप नहीं बैठेंगे जब तक यादवों को मिटाकर इस पराजय का प्रतिशोध न ले लें। आप मेरा तो विश्वास करें। शिशुपाल आपके पुत्र हैं। आपने इन्हें पुत्र माना है। आप इनका अनुरोध अस्वीकार नहीं कर सकते। हम ब्राह्मण नहीं हैं, बलहीन नहीं हो गए हैं, साधनहीन नहीं हैं, फिर हम वन में तप करने क्यों जाएं? शत्रु तो प्रसन्न होगा इस समाचार से। राजाओं ने समझाया–आप शत्रु को सन्तप्त करने वाले हैं। हम सब वर्ष भर के भीतर ही आपके छत्र के नीचे फिर मथुरा आवेंगे और आपके शत्रु का समूलोच्छेद करके लौटेंगे। सब नरेश–सब साथी, सहायक नरेश आग्रह कर रहे थे। आज ये विपत्ति के साथ हैं। इन सबकी बात न मानना उचित नहीं है। जरासन्ध का बहुत वात्सल्य था शिशुपाल पर। शिशुपाल का आग्रह टाल देना और कठिन था। नरेश गण जो नीति, इतिहास आदि सुना रहे थे, मगधराज उन उदाहरणों से अनभिज्ञ नहीं था। वह नीतिज्ञ था, विद्वान था। उसे सबकी बात उचित लगी। यादवों के द्वारा उसकी पराजय–इस समय भी उसे अकल्पनीय बात लगती है। केवल दो बालक, थोड़े से पृष्ठपार्श्व रक्षक सैनिक लेकर आवें और इतने प्रतापी राजाओं की अपार वाहिनी को विनष्ट कर दें–कर्म प्रबल होता है। प्रबल ही प्रतिकूल न होता, यह घटना–यह पराजय क्या सम्भव थी? प्रारब्ध–कितना प्रबल होगा प्रारब्ध? प्रबलतम पौरुष सदा प्रारब्ध पर विजयी हुआ है। जरासन्ध पौरुष करेगा-इतना अथक पौरूष कि प्रारव्ध को हारना पडे।वह तव तक पौरुष थकेगा नहीं, जब तक इस पराजय को विजय में बदल नहीं देता। दृढ़ निश्चय करके जरासन्ध रथ में बैठ गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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