भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
उद्धव लौट आए ब्रज से
व्रज की बात पूछोगे? तुमको भी व्रज की दशा पूछना है? उद्धव भगवान वासुदेव का हाथ पकड़े रुदन करने लगे हैं– यह वृहदबल तुम्हारे सामने तड़प कर क्षण भर में मर जा पाता–कदाचित ही व्रज के वियोग का कोई अंश तब भी तुम्हें समझा पाता। श्रीकृष्ण आवेंगे– उन्होंने कहा है तो आवेगे ही। किसी दिन तो आवेंगे। व्रज के जन-जन में यह दृढ़ विश्वास जमा बैठा है। वे जीवित ही केवल इसीलिए हैं– वे आवेंगे और देखेंगे कि हम उनके वियोग में मर गए तो उनके कमल लोचनों से अश्रु बहेगे। वे दुखी होंगे। उदास–निराश होंगे।
श्रीकृष्ण! कुछ मत कहो। कोई बहाना मत करो। उद्धव हाथ पकड़ कर मचल पड़े हैं–उठो उठो! और व्रज चलो अभी! इसी समय। तुम्हारे यहाँ से जाने से त्रिभुवन में प्रलय हो तो हो जाने दो। तुम चलो!
उद्धव! मेरे भाई! श्रीकृष्ण मेघ गंभीर स्वर–कहाँ चलूं मैं? किनके समीप चलूं? व्रज की कुमारिया, व्रज के गोप कुमार, व्रजजन मुझसे दूर हैं कि मैं उनके पास चलूं? मैं उनसे दूर हूँ कि वे यहाँ आएं? तुमने किसी गोप बाला–किसी गोप कुमार के श्री अंग को ध्यान से देखा होता। उनके रोम–रोम में श्रीकृष्ण दीखता तुम्हें। तुमने नहीं देखा–देख नहीं सके। अब यहाँ श्रीकृष्ण को ही ध्यान से देख लो। ओह! मेरे स्वामी! कुछ क्षण देखते रहे उद्धव श्रीकृष्ण के श्री विग्रह को ओर फिर चरणों से लिपट पड़े। रोम– रोम में गोप बाला, गोप कुमार, व्रज जन–श्रीकृष्ण व्रजमय। यही तो श्रीकृष्ण चंद्र का वास्तविक स्वरूप है। व्रज का संदेश है। व्रज के उपहार हैं– महाराज उग्रसेन से लेकर सेवकों तक के लिए उपहार हैं। उन्हें स्वयं श्रीकृष्ण चंद्र वितरित करेंगे। वे स्वयं देंगे सबको–वे उनके अपनों के–व्रज के जनों के उपहार हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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